अन्नदाता भाग्य विधाता और आंदोलन

Kavita

 

आंदोलन में नवीनता है, यह परिभाषा पुरानी है।

दरअसल आंदोलनों से नवीनता का एक सहज सा रिश्ता है।

आंदोलनों से नवीनता के चिरकालिक संबंध की कहानी सदियों से जानी है।

आंदोलन में कैसी सहजता है, जो जन्म देती है सदैव नव्यता और नवाचार को।

करती है प्रतिकार हमेशा सड़े गले कुत्सित और वर्जित का।

अपनाती है सदैव नवीनता को।

करती है पोषण यही सहजता स्वयं से स्वयं के अस्तित्व का भी।

आंदोलनों का संबंध बड़ा अद्भुत सा है,

धरती से प्रकृति से जीवन से और इस संपूर्ण चराचर ब्रह्मांड से भी।

सोचेंगे आप निरा मूर्ख हूं क्या मैं?

कहां आंदोलन और कहां धरती प्रकृति जीवन और ब्रह्मांड?

सच मानिए, आंदोलन बड़े प्राकृतिक हैं, ये मनुष्य की देन नहीं।

मनुष्य में वह क्षमता कहां जो आंदोलनों को जन्म दे सके?

वह तो केवल अनुसरण करता और अनुगमन करता है स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रियाओं का।

और पाता है अपने विकास की यथेष्ट गति और लक्ष्य।

घूमती और आंदोलित होती है जब धरती अपनी जगह पर,

तो मिलती है रात और दिन को अपने-अपने स्वरूपों की पारस्परिक नवीनता।

आंदोलित होती है जब वह अपने थिरकते पैरों के साथ सूर्य के आभामंडल के परितः

तो दुनिया को मिलती है नए खुशगवार मौसमों की सौगात।

जब कभी आंदोलित होती है वह अपनी स्वाभाविक सुषमा के विरुद्ध होते परिवर्तनों के समक्ष

तो आते हैं जलजले और भूकंप।

आंदोलित होती है प्रकृति, जब पुरातन का परित्याग करने को;

तो देखा है सबने कि आते हैं पतझड़ और मधुमास।

क्रुद्ध होती है जब वह अपने ही जायों पर

तो बढ़ती है ग्रीष्म और शीत की प्रचंडता।

क्षुब्ध होती है जब यही मातृ रूपा प्रकृति अपने पुत्रों पर

तो प्रकट होते हैं विकट रोग।

परंतु होकर सदय जब कभी यह होती है आंदोलित अपने ही द्वारा किए गए परिवर्तनों के विरुद्ध

तब मिलता है संपूर्ण मानवता को प्राण और जीवन, त्राण और अभय।

वत्सला होकर आंदोलित होती प्रकृति ने ही दिए हैं,

मनुष्यों सहित समस्त जीवों को क्षुधापूर्ति तृषातृप्ति के संसाधन।

ये अविचल,अबाध,अनवरत आंदोलित होते सागर और समीर प्रकृति के नित नवाचार के ही तो सूचक हैं।

जीवन जब आंदोलित होता है तब वह विकसित होता है।

प्राप्त करता है अपने उद्भव, विकास और अभिवृद्धि की

नई नई गति और स्थिति और रूपों को।

और ब्रह्मांड वह तो आंदोलनों का निरंतर आश्रय है।

विखंडित होते तारे, ग्रह-नक्षत्र और उल्कापिंड;

रचते रहते हैं ऊर्जा का एक नव संसार प्रतिपल।

पर आज पृथ्वी, प्रकृति और ब्रह्मांड स्तब्ध हैं;

देखकर मानवीय गतिविधियों को।

हतप्रभ है सुनकर वर्तमान में चल रहे,

मानवी आंदोलनों के घिसे पिटे राग को।

कोई नवीनता तो इनमें है नहीं, क्या आपको दृष्टिगत होती है कोई नवता इनमें?

वही व्यवस्था का घिसा-पिटा, रुदन स्वर,

वही दमन और विरोध की रूढ़िवादी रणनीति।

जिसके हिस्से हैं तोड़फोड़, लूटपाट, आगजनी, दिखावे के अनशन।

लाठी-डंडे और अस्त्र शस्त्रों का खुला प्रदर्शन।

सब का उद्देश्य है संसाधन और राष्ट्रीय संपत्ति का नाश।

और सबसे बढ़कर राष्ट्रीय गरिमा की अहर्निश क्षति।

बीती 26 जनवरी को यही तो हुआ है,

तथाकथित किसान तो उपद्रवी हो गए;

आत्मनिर्भर बनाने वाली व्यवस्था हो गई दमनात्मक।

न किसान शब्द की गरिमा का पोषण हुआ,

न आंदोलन की अस्मिता बची।

न ही बचा देश के गणतंत्र पर्व का माहात्म्य।

सोचिए! क्या यही विकसित और व्यवस्थित गणतंत्रात्मक भारत है?

जहां न व्यवस्था सुनने को तैयार है न जनता मानने को।

ऐसा लगता है कि यह आंदोलन है ही नहीं।

आंदोलन से बढ़कर यह है एक षड्यंत्र और कुचक्र,

जिसे कुछ उपद्रवी और व्यवस्था दोनों मिलकर;

बाकायदा संपादित स्वरूप में देश के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं।

और अपनों से ही अपनी अस्मिता की रक्षा करता

हमारा यह देश, हमारा यह संप्रभु गणतंत्र;

कातर है, दुखी है, असहाय है, निस्तब्ध है… मौन और अकेला है।

अपनी ही व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़ा,… नीरव रुदन कर रहा है।

किसी को भी प्रश्नांकित करे तो कैसे?

सब तो इसके नितांत अपने हैं…।

 

 

 

 

 

 

 

 

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