उठहु राम भंजहु भव चापा…(सीता स्वयंवर का मानस प्रसंग भाग 5)

Katha-Prasang

राजा जनक की हताशा, लक्ष्मण के क्रोध, और स्वयंवर के हित उपस्थित राजाओं की विफलता  ने  वह भूमि तैयार की जिसकी कोख से श्री रघुवीर और वैदेही के विवाह का पुण्य संयोग रूपी अंकुर फूटा। लक्ष्मण को क्रोधित हुआ जानकर और परिस्थिति की विकटता को भांपकर, गुरु विश्वामित्र ने राम को संबोधित किया। शुभ समय का विचार करके महा मुनि विश्वामित्र श्री राम को संबोधित करते हुए बोले कि हे राम! उठो और भवेश के चाप का भंजन करके राजा जनक की चिंता का  शमन करते हुए जानकी का पुण्य वरण करो। समस्त सांसारिक मर्यादाओं के लिए सेतु के सदृश, श्री राम ने गुरु के चरणों की वंदना की। हर्ष और विषाद सदृश् मनोभावों को सदैव सम स्थिति में रखने वाले,   अत्यंत सहजता से धनुष की ओर बढ़ते हुए राम ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानों कोई मतवाला हाथी अपनी सहज गति से अपने अभिलषित लक्ष्य की ओर गमन कर रहा हो। धनुष भंग को प्रस्तुत हुए सभा मध्य में खड़े श्री रघुवर को देखकर संत जनों के मन रूपी सरोज विकसित हो गए हैं और उपस्थित जन समुदाय के नेत्रों में नवीन हर्ष का समावेश हो गया है। पुरवासी प्रार्थना रत हैं कि उनके भी पुण्य प्रभावों को ग्रहण करके किसी प्रकार  धनुष भंगकर श्री राम जानकी का वर्णन कर लें। धनुष के सन्निकट पहुंचे राम ने लक्ष्य किया कि उपस्थित जनसमुदाय उन्हें चित्रवत देख रहा है। साथ ही साथ प्रभु ने उनके वरण की आकांक्षा से विचलित चित्ता हुईं सीता के मन की विकलता को भी भांप लिया। सीता जो स्वयं संसार की उत्पत्ति स्थिति और संहार की गलियों का निर्धारण करने वाली पराशक्ति हैं वे सामान्य मनुष्य की भांति अपने नेत्रों में प्रवाहित होती जल राशि को उनके मध्य ही समेट कर अपने चित्त की व्याकुलता को विधाता की विनय के रूप में परिवर्तित कर राम के लिए धनुष की कठोरता और विकरालता को कोमलता में परिवर्तित कर देने का दुर्लभ और विरल वर चाहती हैं।  स्वयं के प्रति सीता की अपरिमित प्रीति का स्मरण करके राम का रोम-रोम रोमांचित हो उठा। लोक सट्टा चार के कारण उसे अपने मन में धारण करके धनुष को भंग करने हेतु प्रस्तुत हुए रघुवर ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया। गुरु के प्रणाम की विनम्र नैतिकता का फल कहें या गौरी, गणपति और शिव से निरंतर श्री राम को प्राप्त करने के लिए विनयरता सीता की विनय का बल; श्री राम ने अत्यंत लघु प्रयास से ही उस विकट धनुष को सहज ता पूर्वक उठा लिया। पलक झपक ने मात्र की देरी में ही प्रभु ने उसने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जगतपति के बल का अनुशासन ग्रहण कर पुरारी का वह जीर्ण धनुष अपनी निर्दिष्ट गति को प्राप्त करते हुए खंडित हो गया। धनुष भंग होते ही विषाद के आवरण में आवृत जनक की राज सभा  हर्षित हो गई। संकुचित चित्ता सीता का हृदय कमल विकसित हो उठा। अपने प्रेम अनुराग और शील को लज्जा के आवरण में संवृत्त करती हुईं सीता के पग अपनी जीवन निधि के स्वरूप श्री राम का वर्णन करने हेतु उनकी ओर चल पड़े। श्रीरघुवर कोमल कमलनयन ने सीता की वरमाला ग्रहण की और मिथिला को अपनत्व का चिरस्थाई सम्मान प्रदान किया। वे केवल जानकी जीवन नहीं हुए अपितु जनक के जामाता होकर उन्होंने संसार के प्रत्येक ऐसे पिता को सम्मान दिया जो अपनी पुत्री के हित सुयोग्य वर के वरण की चिंता से दग्ध होता है।

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