कविता सृष्टि का बीज वक्तव्य है और प्राकृतिक ध्वनियां उसका आदि छंद। वैदिक ऋचाएं इसका सर्वोत्कृष्ट प्रमाण हैं। नीरव तथा पाषाणी जड़ता को अपने हृदय में धारण करने वाले पर्वत भी नदियों और निर्झरों के रूप में अपने अंतस के राग या काव्य को ही जन्म देते हैं। कविता सर्वप्रथम प्रकृति से प्रेम,शक्ति और सौंदर्य केअनंत उद्दोलनों तथा उद्दीपनों के रूप में प्रस्फुटित होती है । मनुष्य का स्वाभाविक रूप से संवेदनशील मानस इन्हें ग्रहण कर अपनी भाषा और वाणी में अभिव्यक्त करता है, जिसके परिणाम स्वरूप लौकिक कविता जन्म लेती है।हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और समीक्षक आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे मानव-ह्रदय की मुक्ति-साधना के लिए वाणी द्वारा किया गया शब्द-विधान मानते हैं ।कविता एक गर्भस्थ शिशु की तरह होती है जब वह रचनाकार के मानस में होती है। यही कविता एक अबोध बालक की भांति होती है जब वह प्रथमतः रचनाकार के समक्ष होती है। जैसे-जैसे उसका सामाजिक दायरा विकसित होता है अर्थात वह रचनाकार के मुख से निःसृत होकर समाज सापेक्ष होती है वैसे-वैसे वह एक आकांक्षी किशोर-किशोरी की भांति होती जाती है। उसमें अनंत संभावनाएं होती हैं और अपरिमित अपेक्षाएँ।जब वह कविता समाज द्वारा अपने रूप-स्वरूप और शिल्प के दायरे में बांध दी जाती हैअथवा इन मानदंडों पर स्वीकृति प्राप्त करने लगती है तब वह एक सौभाग्य कांक्षिणी नवयुवती की भांति होती है। यह कविता लोगों तक पहुंचना चाहती है परंतु अपने गौरव का रक्षण भी करना चाहती है।आगे चलकर यही युवती रूपा कविता प्रगल्भ रमणी की भांति हो जाती है । तब वह अपने पाठक को विभिन्न प्रकार से स्वयं में रमण कराती है । वह उसे स्वयं से खेलने की आज़ादी नहीं देती। ऐसी कविता के साथ,उसे पढ़ने वाला या अध्ययन-अनुशीलन करने वाला कोई भी मनुष्य; किसी भी तरह का खिलवाड़ नहीं कर सकता। कविता एक वार्धक्य को प्राप्त स्त्री की भांति भी होती है। जहां कविता केवल संसार की मंगल कामना करती है, उसे संसार से कुछ अपेक्षा नहीं होती । वह केवल मातृवत स्नेह लुटाती हुई, सबके लिए वरद मुद्रा में होती है।उसका चित्त स्थिर हो जाता है। आप सोचेंगे कि उसके बाद कविता का क्या होता है? कविता नष्ट नहीं होती, वह समाधिस्थ हो जाती है शिव की भांति, वह पुनर्प्रस्फुटित होती है शक्ति की भांति और अपने शिव-शक्ति समन्वित रूप में समाजोन्मुख होकर पुनःनए अर्थ-गौरव के साथ प्रदर्शित होती हुई देश-काल तथा परिवेश के अनुरूप नवीन भाव-सौंदर्य का सृजन करती है। अकारण नहीं है कि हमारी कवि कुल परंपरा के सर्वोत्कृष्ट कवि कालिदास ने शिव और शक्ति को वाणी तथा अर्थ का समन्वित रूप ही कहा है। कविता के प्रिय पाठकों की आगे आने वाली पीढ़ियां, जब उसका पुनर्पाठ करती हैं तो कविता पुनर्जागृत हो उठती है,अनेक रूपा औरअनेक वर्णा होकर।