अलका की विशिष्टता का वर्णन करते हुए यक्ष मेघ से कहने लगा,हे मित्र मेघ!अलका के महल अपने इन-इन गुणों से तुम्हारी होड़ करेंगे। तुम्हारे पास बिजली है तो उनमें छबीली स्त्रियाँ हैं। तुम्हारे पास रँगीला इन्द्रधनुष है तो उनमें चित्र लिखे हैं।तुम्हारे पास मधुर गम्भीर गर्जन है तो उनमें संगीत के लिए मृदंग ठनकते हैं। तुम्हारे भीतर जल भरा हैं, तो उनमें मणियों से बने चमकीले फर्श हैं। तुम आकाश में ऊँचे उठे हो तो वे गगनचुम्बी हैं। वहाँ अलका की वधुएँ षड्ऋतुओं के फूलों से अपना श्रृंगार करती हैं। शरद में कमल उनके हाथों के लीलारविन्द हैं। हेमन्त में टटके बालकुन्द उनके घुँघराले बालों में गूँथे जाते हैं। शिशिर में लोध्र पुष्पों का पीला पराग वे मुख की शोभा के लिए लगाती हैं। वसन्त में कुरबक के नए फूलों से अपना जूड़ा सजाती हैं। गरमी में शिरीष के सुन्दर फूलों को कान में पिरोती हैं और तुम्हारे पहुँचने पर वर्षा में जो कदम्ब पुष्प खिलते हैं, उन्हें माँग में सजाती हैं। वहाँ पत्थर के बने हुए महलों के उन अट्टों पर जिनमें तारों की परछाईं फूलों-सी झिलमिल होती है, यक्ष ललितांगनाओं के साथ विराजते हैं। तुम्हारे जैसी गम्भीर ध्वनिवाले पुष्कर वाद्य जब मन्द-मन्द बजते हैं, तब वे दम्पति कल्पवृक्ष से इच्छानुसार प्राप्त रतिफल नामक मधु का पान करते हैं। देवता जिन्हें चाहते हैं, ऐसी रूपवती कन्याएँ अलका में मन्दाकिनी नदी के जल से शीतल बने पवनों का सेवन करती हुई, और उसके किनारे के मन्दारों की छाया में अपने आपको धूप से बचाती हुई, सुनहरी बालू की मूठें मारकर मणियों को पहले छिपा देती हैं और फिर उन्हें ढूँढ़ निकालने का खेल खेलती हैं।अलका में जब कामी प्रियतम अपने चंचल हाथों से लाल अधरोंवाली स्त्रियों के नीवी बन्धनों के तड़क जाने से ढीले पड़े हुए दुकूलों को खींचने लगते हैं, तो लज्जा में निमग्न हुई वे बेचारी किरणें छिटकाते हुए रत्नदीपों को, सामने रखे होने पर भी कुंकुम की मूठी से बुझाने में सफल नहीं होतीं। उस अलका के सतखंडे महलों की ऊँची अटारियों में बे रोक-टोक जानेवाले वायु की प्रेरणा में प्रवेश पाकर तुम्हारे जैसे मेह वाले बादल अपने नए जल-कणों से भित्तिचित्रों को बिगाड़कर अपराधी की भाँति डरे हुए,झरोखों से धुएँ की तरह निकल भागने में चालाक, जर्जर होकर बाहर आते हैं। वहाँ अलका में आधी रात के समय जब तुम बीच में नहीं होते तब चन्द्रमा की निर्मल किरणें झालरों में लटकी हुई चन्द्रकान्त मणियों पर पड़ती हैं, जिससे वे भी जल-बिन्दुओं की फुहार टपकाने लगती हैं और प्रियतमों के गाढ़ भुजालिंगन से शिथिल हुई कामिनियों के अंगों की रतिजनित थकान को मिटाती हैं।अलका में कामी जन अपने महलों के भीतर अखूट धनराशि रखे हुए सुरसुन्दरी वारांगनाओं से प्रेमालाप में मग्न होकर प्रतिदिन, सुरीले कंठ से कुबेर का यश गानेवाले किन्नरों के साथ, चित्ररथ नामक बाहरी उद्यान में विहार करते हैं। वहाँ प्रात: सूर्योदय के समय कामिनियों के रात में अभिसार करने का मार्ग, चाल की दलक के कारण घुँघराले केशों से सरके हुए मन्दार फूलों से, कानों से गिरे हुए सुनहरे कमलों के पत्तेदार झुमकों से, बालों में गुँथे मोतियों के बिखेरे हुए जालों से, और उरोजों पर लटकने वाले हारों के टूटकर गिर जाने से पहचाना जाता है।अलका में कुबेर के मित्र शिवजी को साक्षात बसता हुआ जानकर कामदेव भौंरों की प्रत्यंचावाले अपने धनुष पर बाण चढ़ाने से प्राय: डरता है। कामीजनों को जीतने का उसका मनोरथ तो नागरी स्त्रियों की लीलाओं से ही पूरा हो जाता है, जब वे भौंहें तिरछी करके अपने कटाक्ष छोड़ती हैं तो वे कामीजनों में अचूक निशाने पर बैठते हैं। वहाँ अकेला कल्पवृक्ष ही पहनने के लिए रंगीन वस्त्र,नयनों में चंचलता लाने के लिए चटक मधु,शरीर सजाने के लिए पुष्प-किसलय और भाँति-भाँति के गहने, चरण कमल रँगने के लिए महावर यह सब स्त्रियों की श्रृंगार-सामग्री उत्पन्न कर देता है। उस अलका में कुबेर के भवन से उत्तर की ओर मेरा घर है, जो सुन्दर इन्द्रधनुष के समान तोरण द्वारा दूर से पहचाना जाता है।उस घर के एक ओर मन्दार का बाल वृक्ष है जिसका मेरी पत्नी ने पुत्र की भांति पोषण किया है और जो हाथ बढ़ाकर चुन लेने योग्य फूलों के गुच्छों के भार से झुका हुआ है। मेरे उस घर में एक वापी है, जिसमें उतरने की सीढ़ियों पर पन्ने की सिलें जड़ी हैं और जिसमें बिल्लौर की चिकनी नालों वाले खिले हुए सोने के कमल भरे हैं। सब दु:ख भुलाकर उसके जल में बसे हुए हंस तुम्हारे आ जाने पर भी निकटस्थ एवं सुगम मानसरोवर में जाने की उत्कंठा नहीं दिखाते। उस वापी के किनारे एक क्रीड़ा-पर्वत है।जिसकी चोटी सुन्दर इन्द्र नील मणियों के जड़ाव से बनी है; उसके चारों ओर सुनहले कदली वृक्षों का घेरा देखने योग्य है।हे मित्र! चारों ओर घिरकर बिजली चमकाते हुए तुम्हें देखकर डरा हुआ मेरा मन, अपनी गृहिणी के प्यारे उस पर्वत को ही याद करने लगता है। उस क्रीड़ा-शैल में कुबरक की बाड़ से घिरा हुआ माधवी का मंडप है, जिसके पास एक ओर चंचल पल्लवोंवाला लाल फूलों का अशोक है और दूसरी ओर सुन्दर मौलसिरी है। उनमें से पहला मेरी तरह की दोहद के बहाने तुम्हारी सखी के बाएँ पैर का आघात चाहता है, और दूसरा (बकुल) उसके मुख से मदिरा की फुहार का इच्छुक है। उन दो वृक्षों के बीच में सोने की बनी हुई बसेरे की छतरी है जिसके सिरे पर बिल्लौर का फलक लगा है, और मूल में नए बाँस के समान हरे रंग की मरकत मणियाँ जड़ी हैं।मेरी प्रियतमा हाथों में बजते कंगन पहने हुए सुन्दर ताल दे-देकर जिसे नचाती है, वह तुम्हारा प्रिय सखा नीले कंठवाला मोर सन्ध्या के समय उस छतरी पर बैठता है। हे भद्र! ऊपर बताए हुए इन लक्षणों को हृदय में रखकर, तथा द्वार के शाखा-स्तम्भों पर बनी हुई शंख और कमल की आकृति देखकर तुम मेरे घर को पहचान लोगे, यद्यपि इस समय मेरे वियोग में वह अवश्य छविहीन पड़ा होगा।क्योंकि सूर्य के अभाव में कमल कभी अपनी पूरी शोभा नहीं दिखा पाता। हे मेघ!शीघ्रता के साथ नीचे उतरने के लिए तुम शीघ्र ही मकुने हाथी के समान रूप बनाकर ऊपर कहे हुए क्रीड़ा-पर्वत के सुन्दर शिखर पर बैठना। फिर जुगनुओं की भाँति दिपती और टिमटिमाते प्रकाशवाली अपनी विद्युतरूपी दृष्टि महल
के भीतर डालना। देह की छरहरी, उन्नत यौवनवाली,नुकीले दाँतोंवाली, पके हुए बिम्बा फल के सदृश लाल अधरों वाली, कटि की क्षीण, चकित हिरनी की चितवन वाली, गहरी नाभिवाली, श्रोणि-भार से चलने में अलसाती हुई, स्तनों के भार से कुछ झुकी हुई; ऐसी मेरी पत्नी वहाँ अलका की युवतियों में मानो ब्रह्मा की पहली कृति है। मेरे दूर चले आने के कारण अपने सहचर से बिछड़ी हुई उस मेरी प्रियतमा को तुम मेरा दूसरा प्राण ही समझो। मुझे प्रतीत होता है कि विरह की प्रगाढ़ वेदना से सताई हुई वह बाला वियोग के कारण बोझिल बने इन दिनों में कुछ ऐसी हो गई होगी जैसे पाले की मारी कमलिनी और तरह की हो जाती है। लगातार रोने से जिसके नेत्र सूज गए हैं,गर्म साँसों से जिसके निचले होंठ का रंग फीका पड़ गया है, ऐसी उस प्रियतमा का हथेली पर रखा हुआ मुख, जो श्रृंगार के अभाव में केशों के लटक आने से पूरा न दीखता होगा, ऐसा मलिन ज्ञात होगा जैसे तुम्हारे द्वारा ढँक दिए जाने पर चन्द्रमा कान्तिहीन हो जाता है। हे मेघ!तुम्हें मेरी वह पत्नी या तो देवताओं की पूजा में लगी हुई दिखाई पड़ेगी, या विरह में क्षीण मेरी आकृति का अपने मनोभावों के अनुसार चित्र लिखती होगी, अथवा पिंजरे की मैना से मीठे स्वर में पूछती होगी कि ओ रसिके! क्या तुझे भी वे स्वामी याद आते हैं? तू तो उनकी दुलारी थी। हे सौम्य! फिर मलिन वस्त्र पहने हुए गोद में वीणा रखकर, नेत्रों के जल से भीगे हुए तन्तुओं को किसी तरह ठीक-ठाक करके मेरे नामांकित पद को गाने की इच्छा से संगीत में प्रवृत्त वह अपनी बनाई हुई स्वर-विधि को भी भूलती हुई दिखाई पड़ेगी। वियोगिनी की काम दशा, संकल्प अथवा, एक वर्ष के लिए निश्चित मेरे वियोग की अवधि के कितने मास अब शेष बचे हैं, इसकी गणना के लिए देहरी पर चढ़ाए पूजा के पुष्पों को उठा-उठाकर भूमि पर रख रही होगी। या फिर भाँति-भाँति के रति सुखों को मन में सोचती हुई मेरे मिलने का रस चखती होगी।प्राय: स्वामी के विरह में वियोगिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार अपना मन-बहलाव किया करती हैं। चित्र-लेखन या वीणा बजाने आदि में व्यस्त होने के कारण उसे दिन में तो मेरा वियोग वैसा न सताएगा, पर मैं सोचता हूँ कि रात में मनोविनोद के साधन न रहने से वह तेरी सखी भारी शोक में डूब जाएगी।अतएव आधी रात के समय जब वह भूमि पर सोने का व्रत लिये हुए उचटी नींद से लेटी हो, तब मेरे सन्देश में उस पतिव्रता को भरपूर सुख देने के लिए तुम महल के वातायन में बैठकर उसके दर्शन करना। मानसिक सन्ताप के कारण तन-क्षीण बनी हुई वह, उस विरह-शय्या पर एक करवट होकर ऐसे लेटी होगी, मानो पूर्व दिशा के क्षितिज पर चंद्रमा की केवल एक कोर बची हो।जो रात्रि किसी समय मेरे साथ मनचाहा विलास करते हुए एक क्षण-सी बीत जाती थी, वही विरह में पहाड़ बनी हुई गर्म-गर्म आँसुओं के साथ किसी-किसी तरह बीतती होगी। जाली में से भीतर आती हुई चन्द्रमा की किरणों को परिचित स्नेह से देखने के लिए उसके नेत्र बढ़ते होंगे, पर तत्काल लौट आते होंगे। तब वह उन्हें आँसुओं से भरी हुई दूभर पलकों से ऐसे ढक लेती होगी, जैसे धूप में खिलनेवाली भू-कमलिनी मेह-बूँदी के दिन न पूरी तरह खिल सकती है, न कुम्हलाती ही है। रूखे स्नान के कारण खुरखुरी हुई एक घुँघराली लट अवश्य उसके गाल तक लटक आई होगी। अधर पल्लव को झुलसाने वाली गर्म-गर्म साँस का झोंका उसे हटा रहा होगा। किसी प्रकार स्वप्न में ही मेरे साथ रमण का सुख मिल जाए, इसलिए वह नींद की चाह करती होगी। पर हा! आँखों में आँसुओं के उमड़ने से नेत्रों में नींद की जगह भी वहाँ रुँध गई होगी। विरह के पहले दिन जो वेणी चुटीलने के बिना मैं बाँध आया था और शाप के अन्त में शोकरहित होने पर मैं ही जिसे जाकर खोलूँगा, उस खुरखुरी, बेडौल और एक में लिपटी हुई चोटी को, जो छूने मात्र से पीड़ा पहुँचाती होगी, वह अपने कोमल गंडस्थल के पास लम्बे नखोंवाला हाथ ले जाकर बार-बार हटाती हुई दिखाई पड़ेगी। वह अबला आभूषण त्यागे हुए अपने सुकुमार शरीर को भाँति-भाँति के दुखों से विरह-शय्या पर तड़पते हुए किसी प्रकार जीवित रख रही होगी। उसे देखकर तुम्हारे नेत्रों से भी अवश्य नई-नई बूँदों के आँसू बरसेंगे।क्योंकि मृदु हृदय वालों की चित्त-वृत्ति प्राय:करुणा से भरी होती है। मैं जानता हूँ कि तुम्हारी उस सखी के मन में मेरे लिए कितना स्नेह है। इस कारण ही अपने पहले बिछोह में उसकी ऐसी दुखित अवस्था की कल्पना मुझे हो रही है।पत्नी के सौभाग्य से स्वयं को कुछ बड़भागी मानकर, मैं ये बातें नहीं बघार रहा। हे भाई! मैंने जो कहा है, उसे शीघ्र ही तुम स्वयं देख लोगे।
मुख पर लटक आनेवाले बाल जिसकी तिरछी चितवन को अवरुद्ध करते हैं, काजल की चिकनाई के बिना जो सूना है, और वियोग में मधुपान त्याग देने से जिसकी भौंहें विलास-विस्मृता हो चुकी हैं, ऐसा उस मृगनयनी का बायाँ नेत्र; तुम्हारे कुशल सन्देश लेकर पहुँचने पर ऊपर की ओर फड़कता हुआ इस प्रकार प्रतीत होगा जैसे सरोवर में मछली के फड़फड़ाने से हिलता हुआ नील कमल शोभा पाता है। और भी, रस-भरे केले के खम्भे के रंग-सा गोरा उसका बायाँ उरु-भाग तुम्हारे आने से चंचल हो उठेगा। किसी समय सम्भोग के अन्त में मैं अपने हाथों से उसका संवाहन किया करता था। पर आज तो न उसमें मेरे द्वारा किए हुए नख-क्षतों के चिह्न हैं, और न विधाता ने उसके चिर-परिचित मोतियों से गुँथे हुए जालों के अलंकार ही रहने दिए हैं।
हे मेघ! यदि उस समय वह नींद का सुख ले रही हो, तो उसके पास ठहरकर गर्जन से विमुख हो एक पहर तक बाट अवश्य देखना।क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी अकस्मात् उपस्थिति से, कठिनाई से स्वप्न में मिले हुए अपने प्रियतम के साथ गाढ़े आलिंगन के लिए कंठ में डाला हुआ उसका बाहु-पाश अचानक खुल जाए।
हे मेघ,जब तुम अपनी फुहार से शीतलतायुक्त हुई वायु से उसे जगाओगे तो वह मालती की नई कलियों की भांति खिल उठेगी। तब गवाक्ष में बैठकर तुम्हारी ओर विस्मय-भरे नेत्रों से एकटक देखती हुई उस मानिनी से, बिजली को अपने भीतर ही छिपाकर धीर भाव से घिरते हुए कुछ कहना आरम्भ करना कि हे सुहागिनी!मैं तुम्हारे स्वामी का सखा मेघ हूँ। उसके हृदय में भरे हुए सन्देशों को लेकर तुम्हारे पास आया हूँ।मैं अपने धीर-गम्भीर स्वरों से मार्ग में टिके हुए प्रवासी पतियों को शीघ्र घर लौटने के लिए प्रेरित करता हूँ, जिससे वे अपनी विरहिणी स्त्रियों की बँधी हुई वेणी खोलने का उनका मनौत्सुक्य पूर्ण कर सकें। जब तुम इतना कह चुकोगे, तब वह हनुमान को सामने पाने से सीता की भाँति उत्सुक होकर प्रसन्न हुए चित्त से तुम्हारी ओर मुँह उठाकर देखेगी और तुम्हारा स्वागत करेगी।फिर वह सन्देश सुनने के लिए सर्वथा एकाग्र हो जाएगी। हे सौम्य! विरहिणी बालाओं के पास प्रियतम का जो सन्देश स्वामी के मित्र द्वारा पहुँचता है, वह पति के साक्षात मिलन से कुछ ही कम सुखकारी होता होगा। हे चिरजीवी मित्र! मेरे कहने से और अपनी परोपकार-भावना से, तुम इस प्रकार उससे कहना कि हे सुकुमारी, रामगिरि के आश्रमों में गया हुआ तुम्हारा वह सहचर अभी जीवित है। तुम्हारे वियोग की व्यथा में वह पूछ रहा है कि तुम कुशल से तो हो।क्योंकि जहाँ प्रतिपल विपत्ति प्राणियों के निकट है, वहाँ सबसे पहले पूछने की बात भी यही है।
हे मेघ! तुम कहना, कि तुमसे दूर गया हुआ तुम्हारा वह सहचर अपने शरीर को तुम्हारे शरीर से मिलाकर एक करना
चाहता है, किन्तु बैरी विधाता ने उसके लौटने का मार्ग रूँध रखा है, अतएव वह उन-उन संकल्पों द्वारा ही तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रहा है। वह क्षीण है, तुम भी क्षीण हो गई हो।वह गाढ़ी विरह-ज्वाला में तप्त है, तुम भी विरह में जल रही हो। वह आँसुओं से भरा है,तुम भी आँसुओं से गल रही हो। वह वेदना से युक्त है और तुम भी निरन्तर वेदना सह रही
हो। वह लम्बी उसाँसें ले रहा है, तुम भी तीव्र उच्छ्वास छोड़ रही हो। सखियों के सामने भी जो बात मुख से सुनाकर कहने योग्य थी, उसे तुम्हारे मुख-स्पर्श का लोभी वह कान के पास अपना मुँह लगाकर कहने के लिए चंचल रहता था। ऐसा वह रसिक प्रियतम, जो इस समय आँख और कान की पहुँच से बाहर है, उत्कंठावश सन्देश के कुछ अक्षर जोड़कर मेरे द्वारा तुमसे कह रहा है कि हे प्रियतमे! मैं प्रियंगु लता में तुम्हारे शरीर, चकित हिरनियों के नेत्रों में तुम्हारे कटाक्ष,चन्द्रमा में तुम्हारे मुख की कान्ति, मोर के पंखों में तुम्हारे केश तथा नदी की इठलाती,हल्की लहरों में तुम्हारे चंचल भौंहों के विलास की समता देखता हूँ। परंतु हे रिसकारिणी, हाय! कहीं भी एकत्र, मैं तुम्हारी जैसी छवि को नहीं पाता। हे प्रिये! प्रेम में रूठी हुई तुम्हें, जब मैं गेरू के रंग से चट्टान पर लिखकर,स्वयं को तुम्हारे चरणों में चित्रित करना चाहता हूँ,तभी आँसू पुन: पुन: उमड़कर मेरी आँखों की दृष्टि को लुप्त कर देते हैं। निष्ठुर दैव को चित्र में भी हम दोनों का मिलना नहीं सुहाता।
हे प्रिये! स्वप्न दर्शन के बीच में जब तुम मुझे किसी प्रकार मिल जाती हो तब तुम्हें निठुरता से स्वभुजपाश में भर लेने के लिए मैं शून्य आकाश में बाँहें फैलाता हूँ। मेरी उस करुण दशा को देखनेवाली वन-देवियों के बड़े-बड़े आँसू मोतियों की भांति तरु-पल्लवों पर बिखर जाते हैं। हे गुणवती प्रिये! देवदारु वृक्षों के मुँदे नवपल्लवों को खोलती तथा उनके सद्यःप्रस्फुटन से बहते हुए क्षीर-निर्यास की सुगन्धि को लेकर चलती हुई, हिमाचल की दक्षिण की ओर से आती हवाओं का आलिंगन, मैं यह समझकर करता रहता हूँ कि कदाचित वे पहले तुम्हारे अंगों का स्पर्श करके आई हों।हे चंचल नेत्रकटाक्षों वाली प्रिये! लम्बे-लम्बे तीन प्रहरोंवाली विरह की यह रात चटपट कैसे बीत जाए, दिन में भी हर समय उठनेवाली विरह की हूलें कैसे कम हो जाएँ, ऐसी-ऐसी दुर्लभ साधों से आकुल मेरे मन को तुम्हारे विरह की व्यथाओं ने गहरा सन्ताप देकर बिना अवलम्ब के छोड़ दिया है। हे प्रिये! और भी सुनो। बहुत भाँति की कल्पनाओं में मन रमाकर मैं स्वयं को धैर्य देकर जीवन रख रहा हूँ। हे सुहागभरी, तुम भी अपने मन का धैर्य सर्वथा खो मत देना।क्योंकि कौन ऐसा है जिसे सदा सुख ही मिला हो और कौन ऐसा है जिसके भाग्य में सर्वदा दु:ख ही आया हो? हम सबका भाग्य पहिए की नेमि की भांति बारी-बारी से ऊपर-नीचे फिरता रहता है।
जब विष्णु शेष की शय्या त्यागकर उठेंगे तब मेरे शाप का अन्त हो जाएगा। इसलिए बचे हुए चार मास आँख मींचकर बिता देना। उसके पश्चात् तो हम दोनों विरह में सोची हुई अपनी उन-उन अभिलाषाओं को कार्तिक मास की शुक्लपक्षी रातों में पूरा करेंगे। तुम्हारे पति ने इतना और कहा है कि एक बार तुम पलंग पर मेरा आलिंगन करके सोई हुई थीं कि अकस्मात रोती हुई जाग पड़ीं। जब बार-बार मैंने तुमसे कारण पूछा तो तुमने मन्द हँसी के साथ कहा – “हे छलिया, आज स्वप्न में मैंने तुम्हें दूसरी रमणी के साथ रमण करते देखा।”
इस पहचान से मुझे सकुशल समझ लेना।हे चपलनयने!लोकचर्चा या भ्रान्ति सुनकर कहीं मेरे
विषय में तुम अपना विश्वास मत खो देना। कहते हैं कि विरह में स्नेह कम हो जाता है। परंतु सच तो यह है कि भोग के अभाव में प्रियतम का स्नेह, रस के संचय से प्रेम का भंडार ही बन जाता है।
हे मेघ!प्रथम बार विरह के तीव्र शोक की दु:खिनी उस अपनी प्रिय सखी को धीरज देना।फिर उस कैलास पर्वत से, जिसकी चोटी पर शिव का नन्दी ठूँसा मारकर खेल करता है, तुम शीघ्र लौट आना और गूढ़ पहचान के साथ उसके द्वारा भेजे गए कुशल सन्देश से मेरे सुकुमार जीवन को भी, जो प्रात:काल के कुन्द पुष्प की भांति शिथिल हो गया है,ढाढ़स प्रदान करना। हे प्रिय मित्र!क्या तुमने निज बन्धु का यह कार्य करना स्वीकार कर लिया? मैं यह नहीं मानता कि जब तुम उत्तर में कुछ कहो तभी तुम्हारी स्वीकृति समझी जाए। क्योंकि तुम्हारा तो यह स्वभाव है कि तुम गर्जन के बिना भी उन चातकों को जल देते हो, जो तुमसे माँगते हैं। सज्जनों का याचकों के लिए इतना ही प्रतिवचन होता है कि वे उनका काम पूरा कर देते हैं। हे मेघ! मित्रता के कारण, अथवा मैं विरही हूँ इससे मेरे ऊपर दया करके मेरा यह अनुचित अनुरोध भी मानते हुए मेरे कार्य को पूरा कर देना। फिर वर्षा ऋतु की शोभा लिये हुए मनचाहे स्थानों में विचरना। हे जलधर!ऐसा करते हुए,तुम्हें अपनी विद्युत् प्रियतमा से क्षण-भर के लिए भी मेरे जैसा वियोग न सहना पड़े।