गोस्वामी तुलसीदास का रचना संसार

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भारतीय साहित्य की महत्ता और गरिमा स्वयं सिद्ध है।भारत की भूमि भाषा-भाव प्रसविनी है।यहाँ समय और देश-काल के अनुरूप अवतरित  जिनअनेक स्वनामधन्य वाणी-पुत्रों ने इसकी आदिकालिक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक निधि को अपने वाणी रूपी स्वर्ण-दान से श्री मंडित किया है;गोस्वामी तुलसीदास उनमें अग्रगण्य हैं।जीवन के प्रत्येक पक्ष को,मानवीय विचार और आचरण की प्रत्येक क्रिया को  तथा व्यक्ति,समाज,राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व-मानवता को अपनी कविता के स्वर्ण भावों में उत्कीर्ण कर उन्होंने अपने सच्चे भारत-भारती पुत्र होने का प्रमाण दिया।विश्वकवि तुलसीदास का रचना-संसार अत्यंत व्यापक है,अपने आदर्श और आराध्य राम को केंद्र में रखकर गोस्वामी जी ने अपने रचना-वृत्त की जो मनोरम  परिधि निर्मित की है उसके अंतर्गत उनकी कुल बारह रचनाएँ आती हैं।जो क्रमशः इस प्रकार हैं-

1 रामचरितमानस:

रामचरित मानस कवि,संत और सुधारक तुलसी की कीर्ति का सर्वोच्च शिखर है।इस काव्य के नायक राम तुलसी के शब्दों में शक्ति,शील और सौंदर्य के अवतार हैं,मर्यादा पुरुषोत्तम,नर रूप नारायण हैं।तुलसी की इस स्वनामधन्यरचना का आरम्भ संवत 1631के चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को हुआ।जन-मन-रंजन करने वाली यह रामकथा कृति कुल सात कंडों में विभक्त है।इस रचना में वैसे तो तुलसीदास ने विभिन्न मात्रिक तथा वर्णिक छंदों का उपयोग किया है परंतु फिर भी रामचरित मानस के प्रमुख रचना-छंद दोहा,चौपाई और सोरठा हैं।अपनी विशिष्ट समन्वयकारिणी प्रतिभा का उपयोग कर गोस्वामी जी ने मानस में पौराणिक,नाट्य तथा महाकाव्यात्मक शैलियों एवं उनकी रचनागत विशिष्टताओं का एकत्र संघनन कर दिया है।अनेक विद्वानों का मत है कि भारत की सामान्य जनता के जीवन में धर्म एवं आध्यात्मिकता के जागरण,संवर्धन तथा परिरक्षण में तुलसीदास और उनकी कृति रामचरितमानस का जितना योगदान है उतना किसी अकेले कवि और उसकी एकल कृति का नहीं है।संपूर्ण विश्व-सभ्यता के सामजिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि परिवार नामक संस्था है।परिवार के अतिरिक्त जब भी कहीं कुछ टूटता है तो वह बिखर जाता है,समाप्त हो जाता है परंतु परिवार जब एकत्र हो तो उसके संयुक्त शक्ति,शील और सौंदर्य का कहना ही क्या?वह तो जब टूटता भी है तो स्वयं को नया कर लेता है; मरता कभी नहीं। उसके अस्तित्व की जिजीविषा अदम्य और अप्रतिहत है।तुलसी इसी परिवार की अनेकवर्णा छवि-कथा के अमर उद्गाता हैं।रामचरितमानस मानव-जीवन का महाकाव्य होने के साथ-ही-साथ परिवार-जीवन का सबसे बड़ा महाकाव्य है।

2.विनय पत्रिका:
रामचरितमानस के पश्चात गोस्वामी जी का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ विनय पत्रिका है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह राम को संबोधित पत्र शैली का काव्य ग्रंथ है। विनय पत्रिका का आरंभ मंगलाचरण से होता है। इस ग्रंथ में गोस्वामी जी ने सर्वप्रथम गणपति वंदना तत्पश्चात सूर्य, शिव, देवी भगवती, गंगा, यमुना, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता तथा राम, नर और नारायण एवं विष्णु के बिंदुमाधव स्वरूप की स्तुति की है। इसके पश्चात एक विनय अवली है जिसमें भरत और लक्ष्मण के अनुमोदन पर सीता जी के स्मरण कराने पर राम की स्वीकृति है। विनय पत्रिका के इस स्वरूप को देखते हुए इसे पत्र-प्रबंध कहना उचित प्रतीत होता है। हालांकि इसके अनेक पद स्वतंत्र रचनाएं हैं फिर भी आरंभ और अंत का क्रम अपरिवर्तनीय ही दिखता है। विनय पत्रिका भक्ति के विभिन्न भावों का अत्यंत सत्य और स्वाभाविक वर्णन प्रस्तुत करती है। इसकी रचना-शैली गीतिकाव्य की है। विनय पत्रिका की विशिष्टता के संदर्भ में यदि कहा जाए कि भक्ति की सहज और गंभीर धारा असंख्य भाव तरंगों में तरंगायित होती हुई विनय पत्रिका रूपी सरिता में एकत्र प्रवाहित हुई है तो अतिशयोक्ति न होगी। जीवन के सहज प्रवाह में मानव मन में उपजने वाले प्रेम, विश्वास, बोध, दृढ़ता, हर्ष, गर्व, उपालंभ, आत्मभर्त्सना, मोह, चिंता, विषाद और सबसे बढ़कर निर्वेद इत्यादि विविध मनोभाव अपने जीवंत रूप में विनय पत्रिका की पंक्तियों में विद्यमान हैं। सहज, सुगम, सर्व सुलभ भक्ति मार्ग को अविचल आस्था से संवलित होकर अपनाने का सार्वत्रिक संदेश ही विनय पत्रिका की रचना का प्रमुख उद्देश्य परिलक्षित होता है। इस प्रकार यदि हम कहें कि विनय पत्रिका गोस्वामी जी की रचना तूलिका से उकेरा गया मानव के सक्रिय आध्यात्मिक जीवन का सजीव चित्र है तो इसमें कोई संशय नहीं। रामचरितमानस यदि ज्ञान का अर्णव है तो विनय पत्रिका भाव का महोदधि।
3.कवितावली:
कवितावली गोस्वामी जी द्वारा विभिन्न समय और स्थानों पर लिखे गए कवित्त,सवैया इत्यादि छंदों का कांड के अनुसार संग्रह है। यह क्रमबद्ध रूप से रचित एक प्रबंध ग्रंथ नहीं है परंतु सरसता माधुर्य और ओज की दृष्टि से इसके छंद अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इस काव्यकृति में गोस्वामी जी ने राम के जीवन से संबंध रखने वाले विभिन्न दृश्यों की सुंदर और प्रभावपूर्ण झांकी प्रस्तुत की है जो कथानक के सूत्र से तो बहुत बद्ध नहीं हैं परंतु बड़े ही सजीव और मनोरम हैं। राम के बाल रूप की झांकी, धनुष यज्ञ का प्रसंग, वनवास का प्रसंग, वन पथ पर जाते हुए रूप को देखकर मार्ग वासी सामान्य जनों के भाव, लंका दहन और हनुमान तथा लक्ष्मण आदि के युद्ध के प्रसंग बड़े ही मनोरम हैं। कवितावली के उत्तरकांड में कलियुग की दशा और प्रभाव का वर्णन अत्यंत मार्मिक है जो तुलसीदास को उनके समकालीन जीवन जगत की दशा का अत्यंत यथार्थ चित्रकार साबित करता है। इस रचना में तुलसीदास ने अपने बाल्यकाल का हाल और आत्मचरित का भी संकेत किया है। इस प्रकार कवितावली में व्यक्ति और समाज का, राम के महान चरित्र की पृष्ठभूमि के अंतर्गत उल्लेख हुआ है।
4.गीतावली:
गोस्वामी जी की एक अन्य महत्वपूर्ण रचना है। इसमें कवितावली की अपेक्षा अधिक क्रमबद्ध घटना संगठन है। गीतावली के कथानक में सीता के अयोध्या से निष्कासन और लव-कुश की कथा का भी उल्लेख हुआ है। हालांकि गोस्वामी जी ने इस प्रसंग के वर्णन द्वारा राम के ऊपर आरोपित पत्नी के त्याग का लांछन हटाने का प्रयत्न किया है। गीतावली के उत्तरकांड में राम राज्य की समृद्धि का वर्णन है और राम की दिनचर्या के वर्णन द्वारा गोस्वामी जी ने मानव मात्र को राम जैसा बनने की प्रेरणा भी दी है। दीपावली और हिंडोला उत्सव जैसे पर्वों का वर्णन भी गीतावली की अपनी निधि है। समस्त काव्य कृति का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि गीतावली सांस्कृतिक और स्त्रीजनोचित भावनाओं का वर्णन करने वाला काव्य है। स्त्री समाज में प्रचलित विश्वास, टोने-टोटके, परस्पर वार्तालाप का ढंग, बालकों के प्रसंगों की चर्चा, उनकी क्रियाओं का वर्णन, प्रेम -प्रसंग इत्यादि का विशद चित्रण इसे गोस्वामी जी की एक सरस, लोकोन्मुखी रचना होने का गौरव प्रदान कराता है।
5. दोहावली:
दोहावली की रचना गोस्वामी जी ने मुक्तक स्वरूप में की है। इसका प्रत्येक दोहा स्वयं में स्वतंत्र दिखाई पड़ता है। दोहावली की रचना का प्रमुख उद्देश्य नीति वर्णन सिद्ध होता है क्योंकि इसमें समाज, धर्म, व्यक्ति और राजनीति के सुंदर प्रसंग वर्णित होते दिखाई देते हैं। दोहावली में तुलसी ने अपनी काव्य साधना के मुख्य भाव भक्ति के दोहों की भी यथोचित मात्रा में रचना की है। इसमें कुछ दोहे ज्योतिष के ज्ञान से भी संबंधित हैं। राज्य का दर्प और राजाओं के अनीति पूर्ण व्यवहार तथा राजनीति का आदर्श; दोहावली की रचना परिधि में विशेष प्रभाव के साथ वर्णित हुए हैं।
6.रामलला नहछू:
एक मान्यता के अनुसार नहछू की रचना मिथिला में हुई थी। यह सोहर छंदों में अभिव्यक्त रचना है जो विवाह के अवसर पर गाने के लिए बनाई गई। हालांकि राम विवाह के समय जनकपुर में थे, अयोध्या में नहीं; फिर भी इसमें अयोध्या में राम के वैवाहिक नहछू का वर्णन किया गया है जिस पर कुछ शंकाएं प्रकट की जाती हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह विवाह का नहीं यज्ञोपवीत के अवसर का नहछू है उस समय भी लगभग उन्हीं प्रथाओं का निर्वहन किया जाता है जो विवाह में संपन्न की जाती हैं। वास्तव में यह ऐतिहासिक प्रबंध काव्य के रूप में नहीं बल्कि व्यावहारिक, सांस्कृतिक गीत के रूप में निर्मित रचना है। थोड़ी सूक्ष्मता से विचार करें तो ऐसा लगता है कि राम का चरित्र यहां केवल निमित्त मात्र है। इस अवसर पर संभवतः भद्दे गीत प्रचलित रहे होंगे और तुलसी ने एक सामाजिक, सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु नहछू की रचना की होगी। इसके राम एक सामान्य दूल्हे हैं और कौशल्या दूल्हे की माता। इसी प्रकार इसमें प्रथा और सांस्कृतिकता के निर्माण हेतु राम कथा का काल्पनिक आधार स्वीकार किया गया है।तुलसी यहां मर्यादावादी न होकर यथार्थवादी कवि के रूप में प्रकट हुए हैं। यह सांस्कृतिक कृत्य के अनुरूप लोक प्रचलित रसिकता के प्रवाह से मेल रखता हुआ एक यथार्थवादी काव्य है और तुलसी की सरस और लोकगीतों के ढांचे में ढली हुई अवधी भाषा की रचना है। इसके चित्र और भाव बड़े ही स्पष्ट तथा मनोग्राही हैं फिर भी तुलसीदास की अन्य रचनाओं की तुलना में यह कम महत्वपूर्ण रचना प्रतीत होती है।
7.वैराग्य संदीपनी:
विद्वानों ने माना है कि वैराग्य संदीपनी की रचना दोहावली के पूर्व की है क्योंकि इसमें कुछ दोहे वही हैं जो दोहावली में भी हैं और प्रौढ़ता की दृष्टि से यह भी तुलसी की एक प्रारंभिक रचना ही जान पड़ती है। इसे कुल चार प्रकरणों में विभक्त किया गया है। पहला प्रकरण है मंगलाचरण। दूसरा है संत स्वभाव वर्णन, तीसरा है संत महिमा और चौथा है शांति वर्णन। इसके अंतर्गत सदाचार, सत्संग, वैराग्य इत्यादि के द्वारा भक्ति भाव को प्राप्त करने का मार्ग सुझाया गया है। इस ग्रंथ के कुछ दोहे निर्गुण संत काव्य की उपदेश शैली को अपनाए हुए भी दिखते हैं। गोस्वामी जी के कथन की सहजता और उक्ति वैचित्र्य इसमें देखने को नहीं मिलते फिर भी इसके समस्त ढांचे को देखें तो यह उन्हीं की रचना ज्ञात होती है। इसमें भाव के परित्याग, सत्संगति और वैराग्य से भक्ति को प्राप्त करने का उपदेश है।
8.बरवै रामायण:
बरवै रामायण स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में लिखी रचना नहीं है अपितु इसकी रचना मुक्तक रूप में है। भाव और स्वर की असीमता का विस्तार इस छोटे से काव्य की प्रमुख विशेषता है।इसमें कुल मिलाकर 69 छंद हैं जो सात कांडों में विभाजित हैं। बालकांड और अयोध्या कांड के छंद चरित्र और भाव चित्रण की सुष्मिता से परिपूर्ण हैं। इनमें तुलसीदास जी ने अलंकारों का अत्यंत मनोहारी प्रयोग किया है। सीता के सौंदर्य, राम के चरित्र, शील और स्वभाव का वर्णन; सीता का वियोग वर्णन, सैन्य वर्णन इत्यादि अद्भुत आलंकारिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं। रामचरितमानस की ही तरह इसके उत्तरकांड के छंदों में गोस्वामी जी द्वारा वैराग्य, दैन्य, शांत ओज इत्यादि भावों से परिपूर्ण भक्ति का चित्रण किया गया है। कवितावली की भांति ही बरवै भी एक संकलित रचना है परंतु कला के सौंदर्य की बारीकियां इसे तुलसी के काव्य प्रेमियों का कंठ हार बनाती हैं।इसके प्रत्येक छंद की अपनी विशिष्टता है और मणिमाला के मनकों की भांति उसका अपना पृथक सौंदर्य।
9.पार्वती मंगल:
पार्वती मंगल शिव पार्वती आख्यान के अंतर्गत पार्वती के परिणय-प्रसंग के आधार पर लिखा गया काव्य है। इसके कथानक का विकास अत्यंत सुगठित और सौंदर्यपूर्ण है। पार्वती मंगल की रचना कुछ अर्थों में महाकवि कालिदास के कुमारसंभव से मिलती-जुलती दिखाई पड़ती है। साक्ष्यों से पता चलता है कि इस काव्य रचना का रचनाकाल संवत 1643 विक्रमी है। पार्वती मंगल में मुख्यत: गोस्वामी जी ने मंगल और हरिगीतिका छंदों का प्रयोग किया है इसकी विषय वस्तु पार्वती के जन्म, तपस्या, विवाह इत्यादि से संबंधित है। पार्वती मंगल में महिलाओं के गीत या उनके पठनार्थ लिखे जाने जैसी भी विशेषता है। इस कृति का स्वरूप मांगलिक है और महत्व सांस्कृतिक।
10.जानकी मंगल:
जानकी मंगल पार्वती मंगल की ही कोटि का ग्रंथ है और छंद भाषा आदि की दृष्टि से भी यह पार्वती मंगल जैसी ही रचना है। शैली तथा उद्देश्य की साम्यता के कारण दोनों के रचना काल में भी विशेष अंतर नहीं है। पार्वती मंगल के पश्चात रचित काव्य है। इसके कथानक पर वाल्मीकि रामायण का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। रामचरितमानस से भिंड इस काव्य में है परशुराम का आगमन सीता के विवाह के पश्चात बारात के जनकपुरी से लौटने के दौरान मार्ग में होता है और परशुराम और राम लक्ष्मण संवाद अत्यंत संक्षिप्त है। मैं पुष्प वाटिका का प्रसंग नहीं है। जानकी मंगल में प्रमुख उद्देश्य विस्तार पूर्वक वैवाहिक मांगलिक कृतियों का वर्णन है इसीलिए इसका नाम भी मंगल को समाहित किए हुए है। लोक संस्कृति, लोककथाओं और लोकविश्वासों का चिंतन और चित्रण गोस्वामी जी की इस रचना का प्रमुख उद्देश्य दृष्टिगत होता है। इस काव्य रचना में कुल 216 छंद हैं।
11.हनुमान बाहुक:
गोस्वामी जी की इस रचना में 44 कवित्त छंदों में उन्होंने अपनी भयंकर बाहु पीड़ा का निवेदन, श्री हनुमान तथा अन्य देवताओं से किया है। आत्मभाव प्रकाशन की दृष्टि से यह रचना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें हनुमान के बल, चरित्र और कथा का संकेतात्मक उल्लेख हुआ है।रुपकों की दृष्टि से यह अत्यंत सजग, प्रौढ़ तथा उत्कृष्ट साहित्यिक अभिव्यक्ति है।
12.कृष्ण गीतावली:
श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित गोस्वामी जी की यह एकमात्र रचना है जिसके पदों में उन्होंने कृष्ण का अत्यंत सजीव रूप वर्णित किया है। उनकी बाल सुलभ चेष्टा, चरित्र और स्वभाव का मोहक तथा आकर्षक रूप कृष्ण गीतावली में चित्रित हुआ है। यह गोस्वामी जी की एकमात्र ब्रजभाषा में की गई रचना है। भाषा और भाव की विदग्धता की दृष्टि से यह कृति अनुपम है। और इससे यह सिद्ध हो जाता है कि गोस्वामी जी का अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर असाधारण अधिकार था।

 

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