आज सुबह-सुबह बैठा, अखबार पढ़ रहा था कि
कुछ शोर जैसा सुनकर…
नज़र अचानक घर के पास वाले चौराहे की ओर चली गई।
कुछ हुआ था वहाँ…
आजकल के घटना संवेदी मनुष्य की तरह
जब मैंने भी अपने आँख-कान दोनों एक किए
तब इतना समझ में आया…
कुछ परंपरागत चर्चाजीवी बुद्धिमान चीख-चीखकर
ताकत और कमज़ोरी के आँकड़े पेश करते हुए
पूरे देश सहित चीन-पकिस्तान की सैर कर रहे थे।
बम तो बाद में गिरेंगे… उससे पहले
संभावित युद्ध की मौखिक चर्चा से ही
दुश्मनों को ढेर कर रहे थे।
सोचने लगा…
यह देश भक्ति का राग भी बड़ा अद्भुत होता है
बचपन में देखता था कि इसके सुनते ही लोगों के
सीने में जलन और आँखों में तूफ़ान-सा पैदा हो जाता था
पर बदलते समय के साथ इसकी पुरानी तासीर भी थोड़ी-सी बदली है…
पहले की पीढी के लोगों ने इसे अपने खून से ख़ुराक दी
अब लोग इसे महज़ बात से समृद्ध करते हैं।
बहरहाल,मन में विचार आया…
बात तो ज़्यादा अच्छे से घर पर भी हो सकती है ;
फिर चौराहे पर ऐसा क्यों?
कुछ देर बाद खयाल आया कि
चौराहे पारंपरिक तौर पर ऐसे लोगों की प्रिय शरणस्थली रहे हैं
जो घर में पत्नी-बच्चों के सामूहिक कलरव से वियुक्त हो
विश्रांति और एकांत प्राप्ति के प्रबल इच्छुक होते हैं।
संभवतः कुटुंब-क्षुब्ध मनुष्य के लिए सबसे उपयुक्त जगह हैं ये चौराहे…
यहाँ सबकी अपनी सामूहिकता तो है ही,सबका अपना एकांत भी है;
सबकी सबमें रुचि है पर सब सबसे अलग भी हैं।
यही वज़ह है कि देश में चाहे वह गाँव कस्बे या शहर कुछ भी हों
चौराहे गुलज़ार ही रहते हैं…
सबकी तरह हमारा यह चिर पड़ोसी चौराहा भी सदाबहार ही रहा है…
केवल आतंकियों के एक कायराना हमले की घटना को छोड़कर…
जिसमें किसी स्टेनगन की कोई बर्बर गोली,
एक नौज़वान की खोपड़ी को भेदती हुई;
इसके ह्रदय-स्थल पर लगी बापू की मूर्ति की बाईं आँख में जा लगी थी।
तब इसके मुँह से आह निकली थी,
देश के बंटवारे को याद करके…
जहाँ तक याद है…चौदह अगस्त की रात थी वह;
बँटवारे के सत्तर साल बाद आने वाला चौदह अगस्त भी,
उस पुराने दर्द को फिर एक बार ताज़ा कर गया था।
उस दिन घर के अहाते में खड़ा मैं सोच रहा था…
क्या तिथियों का यह सार्वभौमिक चरित्र होता है?
पीढ़ियाँ बदल जाती हैं पर क्या तिथियों की पहचान वैसी की वैसी ही रह जाती है?
मैंने उस दिन देखा था इसे …
रात भर गुमसुम बैठा रहा यह,
एक नीरवता और स्तब्धता को अपने भीतर समेटकर।
पर अगली सुबह जैसे ही इसने प्रभातफेरी के बच्चों को हाथों में तिरंगा थामे
‘भारतमाता’ की जय कहते सुना
इसने भी ज़ोर से कहा…जय ।
फिर तबसे यह कभी उदास और मौन नहीं रहा…
दशकों की गई इसके चेहरे की उदासी इतने सालों बाद आज क्यों लौटती-सी लग रही है…?
आज जब ऑफिस जा रहा था तब इसके पास से गुज़रते हुए सुना…
कुछ लोग कह रहे थे…
पहले वाले ग़रीबी के दिन ही अच्छे थे भाई!
खाने-नहाने भर का ही जुटता था,
लोग खटते थे,खाते थे और अपने में ही मशगूल;
अपनी-अपनी हद में चुपचाप रह जाते थे…
क्यों कह रहे थे वे ऐसा…अचानक समझ नहीं पाया…
काम कुछ ज़्यादा ही था,
और पहुँचने की जल्दी भी थी;
इसलिए बात मन में आई और टल गई।
शाम को लौटते हुए देखा…
चौराहा सुनसान है…
लाउडस्पीकर लगी एक पुलिस की गाड़ी की आवाज़ सुनाई पड़ी…
एक जगह इकट्ठे न हों…किसी से न मिलें…
हाथ न मिलाएँ…दूर से नमस्ते करें…घरों में रहें…
सामाजिकता और नज़दीकी बढ़ने से जान जाने का ख़तरा है…
यह बात तो चौराहे का चरित्र बदल देगी…
मुझे भीतर ही भीतर कुछ टूटने और चुभने जैसा महसूस हुआ।
आप कहेंगे…चौराहे के चरित्र-परिवर्तन की इतनी पीड़ा क्यों?
ठीक कहा आपने,आपसे इस विषय में कुछ कहूँ;
उससे पहले आइए चौराहों के चरित्र की अपनी समझ सामने रखता हूँ…
मैंने आपसे कहा था, कि शहर कोई भी हो
देश में सब चौराहे प्रायः गुलज़ार ही रहते हैं…
इनकी फिज़ां में लोग कुछ खाते-पीते,
किसी बात को लेकर एक दूसरे से दो-चार रहते हैं।
मुद्दा देशी हो या विदेशी ,घरेलू हो या सामाजिक;
राजनैतिक या धार्मिक ही क्यों न हो…
उसके जनमने,जीने और जवान होने तक का सारा सफ़र
इन्हीं के परिवेशों में टिककर,मुँह के रास्ते तय होता है।
विलक्षण बात यह है कि चौराहे, स्वयं में तो स्थिर,एकल और उदासीन होते हैं
पर इन्हीं की आबोहवा में पैदा हुए मुद्दे बड़े गत्वर,बहुआयामी और रंगीन होते हैं।
जब-जब देखता हूँ चौराहों को तो लगता है कि
उनका तन तो एक-सा ही रहता है पर मन बदलता रहता है…
कभी ये दिखते हैं किसी साधनारत,वीतराग तपस्वी की तरह;
तो कभी दिखते हैं किसी चंचल कटाक्ष वाली युवती की भांति।
कभी आते हैं नज़र, बिलकुल अलग किसी जोशीले नौजवान के जैसे;
तो कभी दिख जाते हैं जिंदगी को भी सबक देते अनुभवी इंसान की तरह।
जैसे धरती घूमती है, अपनी धुरी पर और सूरज के चारों ओर भी
वैसे ही चौराहों के रंग-ढंग और चाल,
बदलते हैं दिन-ब-दिन, हर महीने और साल दर साल।
यहाँ एक तरफ़…
जहाँ पहले से अड्डा जमाए अनुभवियों की मंडली
धीरे-धीरे बिखरती हुई समय के क्रम में कम होती जाती है…
तो दूसरी तरफ़… उन्हें अपना गुरु मान,उनकी परंपरा को
अपनी नवीन दृष्टि से जोड़ने और उन्हें सहारा तथा कंधा देने वाले
चर्चा-संतोषी लोगों की पीढ़ी में,नई पौध,नया खून,नया जोश
कुछ-कुछ विद्रोही-सा स्वर लिए जुड़ता और गुंथता चला जाता है।
हमारे घर,मोहल्ले देश और समाज में बसने वाले,
हर खास-ओ-आम के जीवन का दर्पण हैं ये चौराहे…
यहाँ एक साथ, चाय की चुस्कियों के बीच;
बच्चे बड़े हो जाते हैं, बड़े बूढ़े और बूढ़े स्वर्गगत।
यहीं से चलता है देश,यहीं से बनती,गिरती हैं सरकारें;
यहीं से निर्धारित होते हैं, अप्रत्यक्ष विदेशनीति और आर्थिक एजेंडे।
चुनावी बयार के लिए तो ये हिमालय सदृश महिमावान हैं…
और तो और,यहीं से होते हैं स्वयंवर,शादियाँ और तलाक भी।
यहीं से पता चलता है, कि शहर के किन हिस्सों में;
आज नल का पानी नहीं आया लेकिन मौत आ गई है।
सच कहूँ, तो लोकतंत्र की सबसे जीवंत तस्वीर इन्हीं की है;
सबसे उदार और समावेशी चरित्र भी इन्हीं का है…
अपने ह्रदय से चतुर्दिक आगे को बढ़ती सड़कों पर ये पूरा भारत बसाए हुए हैं।
ज़रा गौर से देखिए !
आपको यहाँ नवजात बच्चे के लिए दूध की बोतल खरीदता पिता,
बीमार पत्नी के लिए दवाइयाँ खरीदता पति,
बच्चों को स्कूल छोड़ने आई माँ,
भाई के लिए राखी खरीदती बहन,
सीमा पर जाते पति को आँसू भरी आँखों से विदा करती पत्नी,
रोज़गार की तलाश में बस पकड़ते नौजवान,
नौकरी पाने की खुशी में मिठाई खरीदते युवा
सभी एक साथ मिल जाएँगे।
इतना सुनकर आप पूछेंगे कि तब क्या है इनकी उदासी का कारण?
क्यों उदास है मेरा यह पड़ोसी चौराहा…
यह उदास है कि महामारी से फैले वीराने में,
इसने सीमा पर शहीद सनिकों के शोक में;
केवल उनके परिजनों की नहीं बल्कि पूरे देश की सिसकियाँ सुनी हैं।
और अब जबकि कोई नहीं आता आज इसका दुःख बाँटने
तो यह उदास हो अकेला ही मना रहा है शोक अपने सपूतों की शहादत का…
क्योंकि सबसे पहले इसी को तो देखनी है उनकी मृत काया
सबसे पहले इसी को तो कहना है भारत माता की जय…
और कलेजे पर पत्थर रख अपने या अपने किसी संगी के
अंततः सहेजनी है उनकी समाधि-स्मृति अपने सीने पर
ताकि देश-समाज और आने वाली पीढ़ियाँ भूल न सकें
उनके मौन बलिदान को…
क्योंकि आज हम भूलने के एक स्थायी दौर से जो गुज़र रहे हैं।
(भारत-चीन सीमा पर हाल ही में शहीद हुए बिहार रेजीमेंट के वीर सैनिकों को याद करते हुए…)
दिनांक:03/07/2020
Very beautifully written sir❤️
और आपने सही कहा है, वो दिन गए जब लोग खून बहा देते थे, अब बस बाते ही होती है
इस समझ की सराहना करता हूँ…धन्यवाद…
Nice blog, keep continue writing such nice blog
आपका आभारी हूँ