किसी ने कुछ कहा…
और हम लेते हैं एक छोटा-सा संकल्प!
बहुत जल्दी, बड़ी शीघ्रता से;
हम डालते हैं स्वयं को बंधनों में।
और फिर करते हैं उससे भी बड़ा प्रयत्न
लगातार उनसे ही मुक्ति पाने का;
जिन्हें हमने अपनी स्वेच्छा से स्वीकारा था।
चलता रहता है या क्रम प्रतिक्षण।
अपनी स्वार्थ से प्रेरित इच्छाओं के अनुसार करते हुए कार्य
बुनते हैं हम एक जाल-सा
इच्छाओं विचारों संबंधों और मर्यादाओं का
और फिर…
सोचते हैं, हम व्यर्थ ही झंझट में फंस गए।
जैसे-जैसे करते हैं विचार, कार्यों की निरर्थकता पर
वैसे वैसे निरुद्देश्य प्रतीत होने लगता है जीवन।
हम रोज बुनते हैं अपने लिए ही नई-नई फांस और फंदे
और रोज उन्हें ही तोड़ने और काटने में रहते हैं व्यस्त।
कभी क्रोध के वशीभूत होकर
कह देते हैं कोई बात;
या कर लेते हैं कोई अनुचित काम;
बाद में सोचते हैं,
बड़ा अच्छा होता अगर हम चुप रह जाते।
बड़ा अच्छा होता यदि
क्रोध की जगह प्रेम का व्यवहार करते।
सच में ये बातें बहुत छोटी हैं,
पर इन्हें अपनाना बहुत कठिन है।
आज एक छोटे-से बच्चे को देखा,
तो अचानक याद आया कि
छोटी छोटी बातें बहुत बड़ी होती हैं।
ऊपर से देखने में होती हैं,
निर्दोष शिशु रूप की तरह सरल;
लेकिन होता है, उन्हें लेकर कठिन
धर्म और कर्तव्य का पालन करना
जैसे होती है कठिन…
किसी शिशु की परिचर्या और उसका लालन-पालन।
बहुत छोटी सी बात है…
सुबह सुबह जल्दी उठना,
लेकिन अक्सर देर हो ही जाती है।
बहुत छोटी सी बात है रोज-रोज नहाना;
लेकिन अक्सर हम भूल ही जाते हैं।
छोटी सी बात है हमेशा खुश रहना;
लेकिन हम नाराज हो ही जाते हैं।
छोटा सा संकल्प है, प्यार देना और प्यार पाना
लेकिन…
न हम प्यार दे पाते हैं, न हमें प्यार मिल पाता है।
छोटी ही सी तो बात है सच बोलना;
लेकिन अक्सर हम झूठ बोल ही जाते हैं।
छोटी सी बात है, रोज नए उत्तरदायित्व स्वीकार करना
लेकिन बड़ा हो जाता है उन्हें पूरा करते हुए आगा पीछा करना।
और अंत में उनसे किसी भी तरह अपना पीछा छुड़ाना।
अपने जीवन में पल पल रहते हैं हम सजग,
पल-पल रहते हैं सचेत; जानते हैं कि
क्या गलत है क्या भला है और क्या है बुरा?
क्या सच है और क्या झूठ?
क्या है करणीय और क्या है अकरणीय?
बावजूद इसके संलिप्त हो जाते हैं;
अवांछित और गर्हित कर्मों में।
छोटे से स्वार्थ के वश में होकर कभी-कभी,
हम कर बैठते हैं छोटी सी भूल;
और यह छोटी सी बात हमें देती है बड़ा प्रतिकूल परिणाम।
क्षणिक आवेश के वशीभूत होकर हम,
कर बैठते हैं किसी से अवांछनीय व्यवहार;
हमारा निश्चल मन इसे करता है स्वीकार।
हम करते हैं चिंतन,
करते हैं आत्मविवेचन
बार-बार करते हैं संकल्प,
धर्माचरण का, नैतिकता का;
उदारता और परस्पर बंधुता का।
करते हैं प्रयास नीर क्षीर विवेकी होने का।
हमारी उचित के प्रति सजग और निष्ठावान बनने की;
उचित करने और कहने की यह चेष्टा;
एक संघर्ष की भांति जीवन पर्यंत चलती रहती है।
छोटा सा ही तो है यह जीवन भी,
कब शुरू होता है और कब समाप्त?
कितना क्षणभंगुर है यह;पता नहीं चलता
शुरू होता है और समाप्त हो जाता है।
एक छोटी सी लालसा रह जाती है,
रह जाती हैं छोटी-छोटी बातों की स्मृतियां
प्रत्येक जीवन के साथ और
उसके बाद भी…
संभवतः प्रत्येक जीवन गाथा में।
यह भी कितनी छोटी सी बात है… देखने में
पर है कितनी बड़ी कि यह कभी पूरी नहीं होती…
क्योंकि यह छोटा सा ही जीवन पुनःप्राप्त जो नहीं हो सकता।
Bhut sundar rachna hai