जीवन संग्राम और जीवन रथ के सारथी श्रीकृष्ण

Lalit Nibandh

महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि तो उसी समय निर्मित हो चुकी थी जब कुरु-सभा में वस्त्रविहीना द्रौपदी के आर्तनाद को सुनकर नियति वश दासत्व को प्राप्त रौद्रकर्मा वृकोदर भीम ने दु:शासन के वक्ष को विदीर्ण कर उसके रक्त से याज्ञसेनी के खुले केशों को धोने तथा दुर्योधन की जंघा तोड़ने का भयंकर प्रण ले लिया।उस द्यूत सभा में चीर-दान के द्वारा अपनी प्रिय सखी और धर्म-भगिनी द्रुपद-सुता की लज्जा का परिरक्षण करते कृष्ण उस अबला के जीवन संग्राम के सारथी बने। उसके जीवन-रथ को विपत्तियों के व्यूह से सकुशल निकाल कर वासुदेव ने अपने जीवन-रथ के सारथी होने की सत्यता प्रमाणित की।

समय की अपनी गति और उसके अनुरूप मानव की नियति दोनों ही निश्चित होते हैं। समय अपनी गति से चलता रहा, पांडव नियति के प्रशस्त किये मार्ग पर आगे बढ़ते रहे। काल के नित्यधर्मा नवीन होते परिदृश्यों के मध्य कुरु राजसभा का वही दृश्य एक बार पुनः उपस्थित हुआ। शांतिदूत श्रीकृष्ण ने मानवता के नाश को उद्यत महासमर की विभीषिका से निष्पाप मनुजता को बचाने के संकल्प की प्रस्तावना रखते हुए पांडवों के लिए संपूर्ण न्याय की स्थिति में आधा राज्य और उसमें बाधा होने पर मात्र पाँच गावों की भूमि माँगी।

कृष्ण ने वचन दिया कि इतना हो जाने पर पांडव चिर-संचित प्रतिशोध भाव का परित्याग कर परिजनों के वध से विमुख और अपने जीवन-कर्म  के अभिमुख हो जाएँगे।हस्तिनापुर नाश से निर्माण की ओर बढ़ चलेगा;वैर-भाव के स्थान पर बंधुभाव की स्थापना का ऐसा पुनर्प्रयत्न कृष्ण जैसा जीवन-रथ का सारथी ही कर सकता था परंतु दुरात्मा दुर्योधन ने इसे कृष्ण का कपट-प्रस्ताव कहकर सुई की नोंक भर भूमि भी पांडवों को न देने की बात कही।

सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण ने पांडवों की हित-चिंता में यह प्रस्ताव रखा था परंतु यदि चिंतन के वृत्त की परिधि को थोड़ा स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर विस्तृत करें तो वास्तविकता कुछ भिन्न दिखाई देती है। कृष्ण को पांडवों से अधिक चिंता महाराज भरत के उस भारत की थी जिसका अति समृद्ध सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन और समुन्नत वैभव एक अल्पज्ञ,मदांध,और हठी के अज्ञानता,अभिमान तथा हठ के प्रतिफलन के रूप में उत्पन्न महासंग्राम की भेंट चढ़ जाने वाले थे। कृष्ण यहाँ भी संपूर्ण भारत-मानवता के जीवन रथ के सारथी के रूप में दृष्टिगोचर हुए।

धरती को वीर-प्रसविनी कहते हैं और कृष्ण वीरता के संरक्षक थे। उन्होंने स्वयं को बंदी बनाने का आदेश देने वाले दुर्योधन की ओर देखा। निःसंशय दुर्योधन वीर था,कृष्ण ने लक्ष्य किया कि यदि अभिमान और दंभ के सूत्रों में आबद्ध दुर्योधन के अभिमान-सूत्र छिन्न कर दिए जाएँ तो उसकी जीवन-रक्षा के माध्यम से एक वीर और उसकी निर्दोष वीरता के रक्षण का उदाहरण संसार के सम्मुख प्रस्तुत किया जा सकेगा।

दुर्योधन नहीं माना,कभी-कभी नियति के साथ न चलने की चेष्टा मनुष्य को नाशोन्मुख कर देती है। वही हुआ,जीवन-रथ के सारथी के नियंत्रण की परिधि से बाहर निकलने और स्वयं संसार-बंधन से जीवात्मा को मुक्त करने की अस्तित्वजन्य वचनबद्धता के धारक श्रीकृष्ण को बाँधने की दुर्योधन की अनधिकार चेष्टा ने शांति के सभी उपायों पर विराम लगा दिया। महाभारत का विधिवत बीजवपन हो गया।

कृष्ण ने राजसभा से प्रस्थान किया,चलते-चलते उनकी दृष्टि कर्ण पर जा अंटकी। कृष्ण ने पुनः एक बार अपने सर्व-जन रक्षक अस्तित्त्व की गरिमा के अनुरूप व्यवहार प्रदर्शित करते हुए कर्ण को उसके वीरोचित धर्म की याद दिलाई। यहाँ भी कृष्ण की चेष्टा नियति के वश होकर कुमित्र के संग बंधे एक सुमित्र की रक्षा और उससे भी अधिक एक वास्तविक वीर के निष्कलंक वीरत्व का संरक्षण करने एवं अंततः कर्ण को दुर्योधन से विमुख कर महाभारत की महाविभीषिका से संपूर्ण भारतीय जन-जीवन को बचाने की थी। यहाँ भी कृष्ण जीवन रथ के उस सारथी की भांति दृष्टिगत हुए जो निज प्रयत्नों के बल पर युद्ध-व्यूह के मध्य घिरे जीवन-रथ को मृत्यु-पाश से बचाता हुआ जीवन की सुरक्षित पथ-भूमि पर संचारित कर देता है।

समय का चक्र अपनी गति से निर्बाध चलता रहता है। उसकी करवटों ने मानव की जीवन-जय-यात्रा के अगणित प्रस्थान-बिंदु निर्मित किए हैं। महाभारत भी भारतीय मानव-सभ्यता की अनंत जय-यात्रा का ऐसा ही प्रस्थान-बिंदु था।तैयारियाँ होने लगीं,दोनों पक्ष अपने शक्ति-संतुलन को समृद्ध बनाने में प्रवृत्त हो गए। सहायता-प्राप्ति की आशा लेकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों द्वारका के राजभवन पहुँचे।दोनों मानवोचित अभिलाषाओं और सबलता-दुर्बलता से संपृक्त थे। दुर्योधन लाभ-लोभ से प्रेरित समझदारी के साथ श्रीकृष्ण के यहाँ आया था और अर्जुन की वृत्ति धर्म में श्रद्धा रखने वाले समर्पित मनुष्य की थी।दोनों  जीवन जीवन संग्राम के सारथी का सान्निद्धय चाहते थे परंतु दुर्योधन अपनी अभिमान वृत्ति के कारण जहाँ सारथी पर स्वयं के नियंत्रण का अभिलाषी था वहीं अपनी समर्पण-वृत्ति के अनुरूप अर्जुन स्वयं पर सारथी का नियंत्रण चाहता था।

श्रीकृष्ण के शयन-कक्ष में दोनों योद्धाओं का प्रवेश एक ही समय हुआ। उन्हें सोता देख दोनों ठहर गए,प्रतीक्षा के समय को व्यतीत करने हेतु दुर्योधन उनके सिरहाने की ओर रखे आसन पर बैठ गया;अर्जुन उनका निकटस्थ संबंधी और प्रिय पात्र होकर भी उनके चरणों के समीप प्रणाम-मुद्रा धारण कर खड़ा रहा।नींद से जागते श्रीकृष्ण की दृष्टि स्वाभाविक रूप से अपने सम्मुख खड़े अर्जुन पर पड़ी। दुर्योधन उनकी दृष्टि की विमुख दिशा में था,वह व्याकुल हो उठा।

जो जीवन के समस्त निषेधों का शमन कर उसे सर्व स्वीकृत बना देने की दैवीय प्रेरणा का प्रथम और अंतिम बिंदु दोनों ही है; ऐसे कृष्ण से विमुख होकर दुर्योधन का व्याकुल हो जाना स्वाभाविक ही था। उसने निवेदन किया- वासुदेव मैं अर्जुन से पहले आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ,अतः आपसे कुछ माँगने का प्रथम अधिकार मेरा है। दुर्योधन के इस आग्रह को सुनकर कृष्ण मुसकराए,उन्होंने कहा-निद्रा से जागरण के पश्चात् मैंने सबसे पहले अर्जुन को देखा हैऔर आयु में भी वह तुमसे छोटा है अतः मुझसे कुछ भी माँगने और प्राप्त करने का उसे ही पहला अधिकार है।

अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के उपरांत वासुदेव ने अर्जुन से कहा-वीरवर अर्जुन! इस युद्ध में, मैं तुम्हारी दो प्रकार से सहायता कर सकता हूँ। एक ओर निःशस्त्र होकर मैं स्वयं रहूँगा और दूसरी ओर सर्व-शस्त्र -सुसज्जित मेरी नारायणी सेना रहेगी। अब तुम्हें मुझमें या मेरी नारायणी सेना में से जिसे भी चुनना है; चुन लो ।

अर्जुन ने बिना किसी सोच-विचार के श्रीकृष्ण का चुनाव किया,दुर्योधन की लाभ-लोभ से प्रेरित मति ने अर्जुन का परिहास करते हुए उसे नारायणी सेना से समृद्ध कराया। महाभारत युद्ध का परिणाम तो सर्वविदित है,अर्जुन के युद्ध-रथ तथा जीवन-रथ दोनों के समवेत सारथी बनकर योगेश्वर कृष्ण ने उसे न केवल आत्मज्ञान और कर्मयोग की जीवन-निधि से मंडित किया अपितु महाभारत के युद्ध में विजय-श्री का भी वरण करवाया…इसलिए मेरे मन! तुम कृष्ण की कृपा का आश्रय ग्रहण करो क्योंकि वे ही इस जीवन-रथ को मुक्ति के मार्ग पर संचरित करानेवाले एकमात्र सारथी हैं। उनके सारथ्य के बिना जीवन-संग्राम में विजय संभव है ही नहीं।वे ही गति हैं,स्थिति भी वे ही हैं, वे ही श्रद्धा,विश्वास और इस कर्ममय जीवन का वास्तविक प्रतिफल भी हैं।उनके नियंत्रण की परिधि में रहकर ही तू शव्यसाची बन सकेगा।

 

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