तापस वेश विशेष उदासी..

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तापस वेश विशेष उदासी…
राम वन गमन प्रसंग राम के रामत्व की स्थापना का प्रसंग तो है ही साथ ही साथ वह इस बात का भी प्रमाण है कि मनुष्य के जीवन में सुख और दुख सहचारी होते हैं। सुख से दुःख और दुख से सुख की विभिन्न सरणियों में गमन करता हुआ यह प्रसंग इस जीवन सत्य की स्थापना करता है कि परिवार नामक संस्था में किस प्रकार सम और विषम के बीच मानव जीवन संचालित परिपोषित और संवर्धित होता है। कौन सी आशाएं अभिलाषाएं परिवार को खंडित विखंडित करती हैं और किस प्रकार के त्याग द्वारा इस कभी न टूटने वाली इस संस्था को पुनः सिरजा और संजोया जाता है। इसके अतिरिक्त यह मामला परिवार और समाज के मध्य व्यक्ति के संबंधों की सर्वोच्च नैतिकता को भी स्थापित करता है। राम के जीवनवृत्त की इस सबसे महत्वपूर्ण यात्रा का प्रस्थान बिंदु है अयोध्या का राजभवन जिसकी आधिकारिक राजसभा में।श्रीराम के विवाहोपरांत महाराज दशरथ द्वारा उन्हें युवराज पद प्रदान किया और राजकार्य में सक्रिय होने का दिशा-निर्देश करने का प्रयास किया जाता है तो दूसरी तरफ  है, चलइ जोंक जल वक्र गति  की कवि उपमा से विभूषित महारानी कैकेई और उनकी अंतरंग दासी मंथरा के कुचक्र से आहत होता कोप भवन। कैकेई के हृदय में राम के राज्याभिषेक का उल्लास पुष्प अभी सद्यः  प्रस्फुटित ही हुआ था कि मंथरा की नीच दृष्टि ने उसकी शोभा को श्रीहत करने का मार्ग संधान करना आरंभ कर दिया। ह्रदय को हृदय की  दुर्बलता से ही विजित करने का संकल्प लेकर कुटिल मंथरा, महारानी कैकेई के उल्लास भवन में प्रविष्ट हुई और उसने राम राज्याभिषेक के आनंदातिरेक में निमग्न कैकेई के मातृ हृदय रूपी प्रसून की कोमल पंखुड़ियों को अपने वचन रूपी तीक्ष्ण नखों से क्रमशः विदीर्ण करना शुरू किया। कहते हैं उलाहना और उपहास स्त्री जाति को विचलित और क्रोधित करने का सबसे सहज और सर्वोत्तम साधन हैं। मंथरा ने वही युक्ति अपनाई। उपहासों और उलाहनों के तीर चलने लगे। पहला प्रहार था, कौशल्या का बड़भागिनी होना। और उनकी तुलना में कैकेई का अभागिनी हो जाना। मंथरा के  मत में राम के युवराज पद पर आरूढ़ होते ही यही कैकेई  का भविष्य था। महारानी का स्त्री ह्रदय कंपित हो उठा। उन्होंने मंथरा द्वारा व्यक्त की जाने वाली आशंकाओं को निर्मूल बताते हुए  उसे फटकार भी लगाई परंतु कहीं न कहीं  जीते जी सौत की सेवा, उन्हें उनके राजगौरव के परिप्रेक्ष्य में असंभव और अकल्पनीय जान पड़ी। वे व्याकुल हो उठीं। व्यंग्य और उपहास का दूसरा तीर मंथरा ने चलाया। रानी निःशस्त्र हो उठीं। यह उलाहना दिखावे के पति प्रेम  का था। राजा दशरथ तो उनसे प्रेम करते ही नहीं हैं। यदि प्रेम वास्तविक होता तो भरत को ननिहाल भेजकर राम को युवराज बनाने की कुटिल नीति महाराज ने क्यों अपनाई होती ? कैकेयी स्वयं तो दासी होगी ही, राम के युवराज होते ही  वह भरत को भी उनके बिना मूल्य के सेवक के रूप में प्रतिष्ठित करा देगी। हाय! भला कोई मां अपने तन से उत्पन्न प्राण प्रिय पुत्र को स्वयं ही ऐसे संकट में डालती है? मंथरा ने बड़े ही युक्ति पूर्ण ढंग से कैकेई के कान भरे। उदारमना  महारानी अब मनोमालिन्य से विचलित और विगलित होती हुईं  खिन्नमना होकर मंथरा रूपी विपत्ति से ही मुक्ति का उपाय पूछने लगीं। मंथरा ने कैकेई को हतबुद्धि और स्ववश होता जान, दुर्योग के द्वार पर दस्तक देने हेतु कोपभवन की ओर प्रस्थान करने का विषम सुझाव दिया। वे बातें भी याद दिला दीं, जिनके कारण राज्याभिषेक का आयोजन खंडित हो जाए। देवासुर संग्राम के समय प्राण रक्षा के बदले महाराज दशरथ द्वारा महारानी को दिए गए दो वरदानों की याद दिलाते हुए मंथरा ने महारानी कैकेयी को उनके पाश में राजा दशरथ को आबद्ध कर प्रतिज्ञाबद्ध करने का मार्ग भी बताया। वचनबद्ध रघुवंशी अपने वचन से टलता नहीं,यह सूर्यवंश की सफलता, सबलता और दुर्बलता भी थी। चाहे राम हों या उन्हें अपना जीवन मानने वाले महाराज दशरथ; वचन पालन की वंश मर्यादा के आगे दोनों ही असहाय होंगे। महाराज दशरथ का प्रतिज्ञाबद्ध होना ही राम के वन गमन का आरंभ है। कैकेई अब मंथरा से वरदान मांगने का ढंग पूछने लगीं। जैसे कोई शिकारी शिकार करने के पूर्व अपने शिकार को लालच देता है वैसे ही मंथरा ने वरदान मांगने का उचित समय और उसकी कुचक्र पूर्ण शर्तें महारानी को समझा दीं। राम को को भरत से भी अधिक स्नेह करने वाली माता अब पूर्णतः विमाता हो गई थी। महाराज दशरथ के भव्य राजप्रासाद का कोपभवन जैसे मानों कुपित कैकेई की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कैकेई के कोप ग्रस्त होते ही उसे अपने नाम की सार्थकता का गौरव बोध  हो आया। वत्सलता का स्थान ईर्ष्या ने ले लिया। रनिवास का गौरव बढ़ाने वाली दशरथ की परम प्रिय रानी अब स्वयं के गौरव स्थापन के लिए  कोपभवन में थी। संध्या हुई, भगवान भास्कर अस्ताचल गामी हुए। आनंदित राजा ने महारानी के भवन की तरफ प्रस्थान किया। सूचना मिली कि उनके मुख कमल की प्रसन्नता रूप पत्नी कोप भवन में उनकी प्रतीक्षा कर रही है। मन शंकित हुआ, विचलित भी हुआ; परंतु राम के अभिषेक का आनंदाधिक्य था या राजा का गौरव अथवा पत्नी के प्रति प्रेम; अवध पति दशरथ कोप भवन की ओर चल पड़े।

 

 

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