देखि रूप लोचन ललचाने…सीता स्वयंवर का मानस-प्रसंग (भाग-1)

Katha-Prasang

महर्षि विश्वामित्र इस लोकोत्तर प्रसंग के प्रथम प्रस्थान-बिंदु हैं…राजा गाधि के उस परम तपस्वी पुत्र को एक विकट चिंता ने घेर लिया था, उसका तपोवन आसुरी शक्तियों के उत्पात और अत्याचार से आतंकित था।महर्षि ने मन में अयोध्या-गमन का विचार किया,अयोध्या-गमन का यह विचार उनके चित्त में उपजे इस विश्वास से प्रसूत था कि दशरथ-सुत के रूप में पृथ्वी सेअसुरों के अत्याचार-भार का शमन करने हेतु नारायण का लीलावतार अयोध्या में ही हुआ है।

मुनि विश्वामित्र अयोध्या पहुँचे,संतों के संरक्षण की रघुवंशी मर्यादा के अनुरूप राजा दशरथ ने उनका आदर-सत्कार कर उनकी सब प्रकार से सहायता करने का वचन दिया।अयोध्या का यह प्रसिद्ध राजवंश अपनी वचन-पालन परंपरा के लिए लोक-विश्रुत था। विश्वामित्र को अपने लक्ष्य-सिद्धि की आश्वस्ति हुई।पारस्परिक चर्चा के क्रम में महर्षि ने अपने आगमन के मूल प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए राजा से राम और लक्ष्मण को माँगा।मुनिवर का प्रस्ताव सुन राजा दशरथ भयातुर हो सोचने लगे…पुष्प-सदृश कोमल,अल्पवयस बालक भयानकअसुरों से मुनि-आश्रम की रक्षा कैसे कर सकेंगे?जो राम उनके जीवन के सकल पुण्यों के फल के रूप में प्राप्त हुए हैं,जो उनके प्राणाधार हैं,जीवन-धन हैं; उन्हें वह एक तपस्वी की विकट संकल्प-सिद्धि के लिए काल के मुख में प्रविष्ट कैसे होने दे सकते हैं?वे मात्र राजा ही नहीं पिता भी तो हैं।

संकल्प-विकल्पों में उलझे राजा ने ऋषि विश्वामित्र से निवेदन पूर्वक कहा-ऋषिवर! मेरे ये चार पुत्र मुझे आयु के चौथेपन में मिले हैं,इनकी आयु और शरीर आपकी कार्य-सिद्धि के हेतु उपयुक्त नहीं है।आप मेरी सेना और विपुल धन-धान्य,यहाँ तक कि मुझे भी अपने कार्य को सिद्ध करने हेतु ले चलिए।मैं प्राण देकर भी आपके आश्रम और यज्ञादि अनुष्ठानों की रक्षा करूँगा।राजा दशरथ ने तोअपने मन को वाणी दे दी परंतु ऋषिवर विश्वामित्र का मन खिन्न हो उठा।उन्होंने राजा से अपने वचन पर दृढ़ न रहने की बात कही और क्रोधित हो प्रस्थान की अनुमति माँगी।राजा दशरथ  ऋषि के कोप से भयभीत हो उनके चरणों में नत हो गए।तब कुल-गुरु वशिष्ठ ने उन्हें राम-लक्ष्मण की चिंता न करने और संसार-भार के हरण हेतु राम-लक्ष्मण को मुनि विश्वामित्र  के साथ जाने देने के प्रति आश्वस्त किया।

गुरु की आश्वस्ति और पिता की आज्ञा प्राप्त कर दोनों पुरुष-सिंह मुनि विश्वामित्र की कार्यसिद्धि के लिए उनके अनुगामी बने।तपोवन को ताड़का और मारीच सदृश असुरों के आतंक से मुक्ति प्राप्त हुई,विश्वामित्र की मनश्चिंता मिटी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र की कृपा से अनेक अमोघ सिद्धियों का उपहार मिला।

नियति-नटी के कार्यकलाप बड़े एकांत और शांत भाव से परंतु निरंतर चलते रहते हैं।राम, विश्वामित्र के साथ विश्राम ही कर रहे थे कि तभी मुनिवर को विदेहराजतनया के स्वयंवर का शुभ-निमंत्रण प्राप्त हुआ।जिसे राम मिल जाएँ उसे तो जीवन-निधि मिल जाती है। विश्वामित्र को और क्या चाहिए था?परंतु राम को उनकी जीवन-निधि से मिलाने के सुयश की प्राप्ति का मनोरथ ले मुनिवर विश्वामित्र विदेहराज की नगरी मिथिला चले।राम-लक्ष्मण भी मिथिला-यात्रा में गुरु के अनुगामी बनकर सम्मिलित हुए।मार्ग को सहज और यात्रा को सरस बनाने के उद्देश्य से अनेक कथा-प्रसंगों को कहते-सुनते  राम-लक्ष्मण सहित मुनि विश्वामित्र  ऋषि गौतम के उस आश्रम तक पहुँचे जो स्वयं गौतम के ही शाप की छाया से अभिशप्त तथा श्रीविहीन हो अपने उद्धार की बाट जोह रहा था।राम ने मुनिवर से आश्रम की वैभव-विहीनता के विषय में पूछा तो उन्होंने देवराज इंद्र के छल के कारण अपने ही पति के शाप से पाषाण सदृशा और सौभाग्य-विहीना होकर स्वोद्धार के लिए राम की ही राह तकती गौतम-पत्नी अहल्या की कथा राम को सुनाई।

विश्वामित्र के अनुग्रह से अपने भव-भय-भंजन,जन-मन रंजन चरित्र के अनुरूप व्यवहार प्रदर्शित करते हुए राम ने अहल्या का उद्धार किया।इसके पश्चात् मुनि विश्वामित्र संग दोनों भाई मिथिला नगर की बाहरी सीमा तक जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर शीतल अमराइयों के एक उद्यान में उन्होंने विश्राम किया। विश्वामित्र के शुभागमन की सूचना पाकर विदेहराज जनक वहाँ पहुँचे और ऋषिवर सहित दोनों भाइयों का स्वागत कर उन्हें राजमहल की विश्रामशाला में ठहराया।

भोजन और विश्रामादि क्रिया के पश्चात् जब दिन की प्रहर भर अवधि शेष रह गई थी,छोटे भाई लक्ष्मण के मन में मिथिला नगर के दर्शन की उत्कट अभिलाषा को उत्पन्न हुआ जान राम ने विनीत भाव से मुनि विश्वामित्र से नगर-दर्शन की अनुमति माँगी। विश्वामित्र ने सहर्ष अनुमति दी,दोनों भाई मिथिला-दर्शन को चले।

संसार के समस्त जीवधारियों के नेत्र, जिनके कमलवत नेत्रों के पुण्य-दर्शन से स्वयं को तृप्त और पवित्र करने की चिरसंचित अभिलाषा से युक्त हैं ऐसे राजीवनयन राम अपने अनुज के साथ नगर दर्शन को आए हैं यह समाचार पाते ही मिथिला के नगर-निवासियों में राम-लक्ष्मण के शुभ दर्शन का उत्साह व्याप्त हो गया।अपने काम-धाम छोड़ लोग राम-लक्ष्मण को ऐसे निहार रहे हैं मानो जन्म-जन्मान्तर के दरिद्रों को लूटने के लिए कोई अनमोल खजाना मिल गया है।

राम-लक्ष्मण नगर की शोभा का दर्शन कर रहे हैं और नगर-वासी उनकी अद्भुत रूप-सुषमा का।बाल-वृद्ध,नर-नारी सभी औत्सुक्य और अनुरक्त दृष्टि से राम-लक्ष्मण की रूप-छवि को हृदयस्थ कर लेना चाहते हैं।बालकों का समूह जहाँ दोनों भ्राताओं के पीछे-पीछे चल रहा है वहीं नगर की युवतियाँ भवनों के झरोंखों से उनके रूप-सौंदर्य को अनुरागपूरित होकर अपलक निहार रही हैं।कोई अपनी सखी से उनके रूप-सौंदर्य का बखान करती उन पर बलिहारी जाती है तो किसी को उनके बल-पराक्रम में रुचि है,कोई राम को सीता के वरण हेतु सर्वथा उपयुक्त बताती है तो किसी को ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भांति सीता-राम का परिणय हो जाए तभी उसे जन्म-जन्मान्तर के सुकृतों के पुण्य-फल सदृश यह राम का सुंदर रूप-दर्शन पुनः प्राप्त हो सकेगा। प्रत्येक नगर वासीके मन में उत्कंठा है तो मात्र एक कि उसे राम-रूप-सुधा के पान की निरंतरता प्राप्त हो और अभिलाषा भी मात्र एक ही है कि सीतापति के रूप में विधाता राम को उनके आकांक्षा-अंक में डाल दे।

राम तो राम हैं…अपने एक-एक अंग की स्वतंत्र सुषमा से करोड़ों कामदेवों की सामूहिक छवि को भी लज्जित कर देने वाले…दोनों भाइयों की जिस रूप-छवि ने संपूर्ण मिथिला वासियों के चित्त पर मोहिनी डाल दी है वह अद्भुत,अतुल्य,अगण्य और अनुपमेय है…पीले वस्त्र हैं,हाथो में सुंदर धनुष, माथे पर शरीर के वर्ण के अनुरूप उत्तम चन्दन-तिलक चर्चित है…कानों में स्वर्ण कर्णफूल सुशोभित हो रहे हैं  तो ह्रदय-प्रदेश पर गजमुक्ता की रुचिर माला शोभायमान हो रही है और  काया का प्रत्येक अंग अपनी निर्दिष्ट शोभा का संवाहक बन छविमान हो रहा है। आयु में किशोर,साँवले और गोरे शरीर वाले दोनों भाइयों  के कंधे पुष्ट और भुजाएँ विशाल हैं। सुंदर लाल कमल सदृश नेत्रों वाले इन भ्राताओं का चंद्र-मुख अपने अवलोकन मात्र से सांसारिक त्रय तापों से मुक्ति प्रदान करने वाला है।

जनकपुर की युवतियों के आपसी वार्तालाप ने इस भुवनमोहिनी शोभा पर अतुल्यता और अनुपमेयता की मुहर लगा दी है। उनके विचार में सृष्टि में कोई ऐसा शरीरधारी नहीं हो सकता जो राम-लक्ष्मण के इस विश्व-विमोहन रूप को देख कर सम्मोहित न हो जाए।एक सखी अपनी स्वाभाविक चिंता का कथन करती हुई कहती है कि सीता के स्वयंवर का जो कठिन प्रण विदेह जनक ने किया है क्या उसे वे छोड़ सकेंगे और बिना किसी सोच-विचार के सीता-राम का विवाह करेंगे?क्या वे विधिवश हठी होकर अविवेक न प्रदर्शित करेंगे?

चिंतातुर सखी की चिंता का निवारण राम के गौरवमय चरित्र-कथन से करती हुई दूसरी सखी ने राम के विषय में भरपूर जानकारी जुटाई है।उसे पता है कि राम दशरथ-तनय हैं,कौशल्या और सुमित्रा के इन दोनों पुत्रों ने अजेय असुरों से मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा स्पर्श मात्र से परम भाग्यहीना अहल्या के सौभाग्य को पुनर्जीवित किया है।चार मुखों वाले विधाता ब्रह्मा,चार भुजाओं वाले श्री हरि विष्णु और विकट वेश धारी पंचमुख भगवान् शिव भी जिन राम-लक्ष्मण की इस शारीरिक सुषमा के सम्मुख फीके जान पड़ते हों वे त्रिभुवनमोहन सौंदर्य के धारक राजकुँवर देखने में अल्पवय और सुकोमल शरीर वाले अवश्य हैं परंतु उनके अमित पराक्रम को जान उसे पूर्णविश्वास है कि राम अवश्य ही राजा के धनुर्भंग की प्रतिज्ञा पूरी कर मैथिली का वरण करेंगे।

राम जब चित्त में स्थान बनाते हैं तब ऐसा ही होता है,एक सखी ने कहा-यदि राजा शोभा के धाम राम को एक बार देख लें तो स्वयं ही अपने कठिन प्रण का परित्याग कर सीता का विवाह उनसे कर देंगे। आखिर जिस विधाता ने इतने यत्न से सीता सदृश कन्या रत्न को रचा है,वह अगर दयालु है तो उन्हें राम जैसा अनुरूप वर भी अवश्य प्रदान करेगा।संपूर्ण मिथिला आज राम-दर्शन कर रही है और अपने दर्शन मात्र से नेत्रों को उनके अस्तित्व की सार्थकता प्रदान करने वाले पुरुषोत्तम,अनुज सहित मिथिला-दर्शन में रत हैं।

मिथिला के बाज़ार,रास्ते,सुंदर भवन,मंदिर,चौराहे सब राम-लक्ष्मण के मनोहर दृष्टि-पथ में आकर उनकी स्मृति का अभिन्न अंग बन गए हैं।उनके सुंदर शरीर को प्रेमवश स्पर्श कर पुलकित हो उठने वाले बालकों का समूह अब उन्हें नगर के पूर्वी हिस्से में बनी स्वयंवर-शाला का दर्शन करा रहा है।

जिनके सहज कृपा-कटाक्ष की परिधि में आकर यह संपूर्ण सृष्टि रूपाकार ग्रहण करती है और जिनका अनुशासन पाकर पलक झपकने मात्र की देरी में योगमाया ब्रह्माण्ड-समूहों की रचना कर देती है ऐसे अमित प्रभाव और तेज,बल से युक्त श्रीराम अपने भक्तों पर अपनी सहज वत्सलता प्रदर्शित करते हुए चकित दृष्टि से उस धनुर्यज्ञ-मंडप की भूमि को देख  रहे हैं।

जो राम के अभिमुख हो जाए उसका सौंदर्य भी राममय हो जाता है,नगर के बालकों ने प्रेमपूर्वक उन्हें यज्ञशाला की रचना दिखाई अपनी इस बाल भक्त-मंडली के उत्साह और औत्सुक्य का मान रखते हुए प्रभु ने भाई सहित संपूर्ण यज्ञशाला को कौतुक भरी दृष्टि से देखते हुए बालकों को प्रेमसहित विदा किया और विलंब का अनुमान कर शीघ्रता से गुरु विश्वामित्र  के पास पहुँच गए हैं।

रात बीत गई है,प्रभात हुआ जान लक्ष्मण,राम जग गए हैं। मिथिला का राजभवन और राजकुल अपनी प्रिय पुत्री के स्वयंवर की तैयारियों में व्यस्त है और मुनि विश्वामित्र प्रातः पूजा के प्रबंध में।मुनि की पूजा के लिए पुष्प-चयन करने का उत्तरदायित्व ग्रहण कर राम, लक्ष्मण के साथ राजोद्यान की पुष्प-वाटिका में आए हैं और माता की अनुमति प्राप्त कर विदेह-सुता वैदेही अखंड सौभाग्य-प्राप्ति की कामना से शिव-मुख चंद चकोरी भगवती गिरिजा के पद-वंदन को उसी राजोद्यान में स्थित गौरी-मंदिर में उपस्थित हुई हैं।

राजा जनक का वह मनोहर उद्यान वसंत ऋतु की सुषमा से सुरभित हो रहा है।उद्यान की शोभा से प्रफुल्लचित्त हुए श्री रघुवर मालीगण से अनुमति पा  जैसे ही  पुष्प लेने लगे उसी समय सखियों सहित वहाँ उपस्थित सीता ने भगवती भवानी का विधिवत पूजा-वंदन कर उनसे अपने अनुरूप वर-प्राप्ति की कामना की।

सीता के साथ गौरी-पूजन हेतु आई उनकी एक सखी ने फुलवारी के मध्य पुष्प-चयन करते दोनों भाइयों को देखा तो वह प्रेम-विह्वला हो सीता के समीपआई।उसके पुलकित शरीर और प्रेमाश्रुपूर्ण नेत्रों को निहार सखियों ने अत्यंत कोमल भाव से उससे उसके रोमांच का कारण पूछा।

सखी कहने लगी- किशोर अवस्था वाले,अद्भुत शोभासंपन्न दो राजपुत्र राजवाटिका में आए हैं,उन श्याम-गौर वर्णी राजकिशोरों की अतुलित शोभा का वर्णन मैं कैसे करूँ?क्योंकि मुख के दृष्टि नहीं,और नेत्रों में वाणी का अभाव है;इस कारण मुख  से कहने में दृश्यता का लोप हो जाएगा और देखा हुआ अवर्णनीय है।

राम को वही जान सकता है जिसे वे स्वयं ही उन्हें जानने का अवसर दें। सखी की बात सुनकर राम के शुभ-दर्शन हेतु सीता के मन में जागृत सहज औत्सुक्य-विह्वलता उस मंगल की प्रथम भूमिका थी, जो इन दो पुरातन प्रेमियों के पवित्र चिर मिलन का महोत्सव रचकर संसार को इनके विवाह के महाकाव्यात्मक पुण्यबंधन का पावन दर्शन सुयोग सुलभ कराने वाली थी।

सखियों की सम्मति से,राजीवनयन रघुवर राम के प्रथम दर्शन को राजोद्यान की ओर बढ़तीं पुलकप्रहर्षिता सीता को ऋषि-श्रेष्ठ नारद के वचनों का स्मरण हो आया।हृदय में राम के प्रति प्रेम का प्राकट्य होने लगा, किसी सभीत हिरणी की भांति चकित उनके नेत्र सब ओर फिरते हुए रघुवीर राम को खोज रहे हैं।

प्रेम की उत्कंठा बड़ी प्रबल होती है।उधर सीता के कंकण और नूपुरों का क्वणन सुनकर  मर्यादासेतु राम के मन में भी पहली बार पुष्पधन्वा रतिपति अनंग ने आश्रय पाया है।सीता राम के सम्मुख आ गई हैं ,राम के नयन-चकोर सीता के मुख-चंद्र से सहज निःसृत प्रेम-पीयूष का पान कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे सबकी पलकों में वास करने वाले जनक के पुण्यात्मा पूर्वज निमि ने आज इन दो सनातन प्रेमियों के नेत्रों से अपने अनुशासन को स्वतः हटाकर इन्हें अपलक परस्पर दर्शन हेतु स्वतंत्र कर दिया है। राम को सीता के अनिर्वचनीय रूप की  निस्सर्गसिद्ध सुषमा अनुपमेय जान पड़ती है।इस सर्वोत्कृष्ट सौंदर्य की सराहना वे किन शब्दों में करें?अपने विमल वंश और लोकोत्तर चरित्र की मर्यादा से आबद्ध रघुवर, भाई लक्ष्मण से अपने मन के इस प्रकार कभी विचलित न होने की बात कहते हुए सीता के दर्शन से अपने चित्त में उत्पन्न प्रेम और प्रेमानुरक्त होकर कुमार्ग का अनुसरण न करने वाले अपने रघुवंशी स्वभाव की चर्चा करते हैं।

राम लोकोत्तर हैं तो सीता सर्वश्रेयस्करी,परंतु आज दोनों के चित्त की गति और तथा नेत्रों की गति कुछ और ही है।राम का मन-मधुप सीता के मुख कमल के छवि रूपी मकरंद पर इस प्रकार लुब्ध है कि वह उसके पीयूष पान से विरक्त होना ही नहीं चाहता और सीता के सतत रघुवीर दर्शन हित तृषित नेत्र  उन्हें अपने सम्मुख न पाकर  वैदेही के मन को विकल कर देते हैं।दोनों के मन और नेत्र परस्पर प्रियदर्शनोत्सुक हैं। सखियों द्वारा लताओं  की ओट में खड़े राजकुमारों को दिखाए जाने पर सीता के रघुवीर के अन्वेषण में तत्पर नेत्र प्रेम-पुलकित हो ऐसे ललचा उठे हैं मानो उन्होंने अपनी कोई खोई हुई अमूल्य निधि  पुनः प्राप्त कर ली हो।

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