पड़ोस की अब की परिभाषा हो गई है कुछ अलग।
उम्र और अनुभव के बड़प्पन और अबोध अनुभवहीन बचपन के पड़ोस में आ गया है अंतर।
बचपन में जिन्हें देखा करता था गांव लौटने पर; उन्हें नहीं देख पाया इस बार।
सोचता हूं अचानक कहां गई वे औरतें,जो मां तो किसी एक की होती थीं;पर चाची, दादी,बुआ बहन और भाभी पूरे गांव की थीं।
नहीं मिले वे हाथ जो एक ही चौके में सेंका करते थे पूरे मोहल्ले की रोटियां।
कहां गई वे औरतें…
जो अपने घर बन रही शादी की मिठाई को बांट देती थीं पड़ोस में सबसे पहले।
कोई बाजार से कुछ लेकर आए या खेत खलिहान से घर में कुछ नया बन जाए तो…
सब में रखती थीं जो एक जरूरी हिस्सा पड़ोस का।
सोचता हूं, क्या अब नहीं होती हैं वैसी शादियां, जिनमें अक्सर छूट जाते थे रिश्तेदार
लेकिन पड़ोसी बुलाए जाते थे मनुहार से।
मुंह की फूंक से गीली लकड़ियों को भी चूल्हे में
ख़ुद जलने के लिए रजामंदी देते मैंने गांव में ही देखा है।
उन्हीं औरतों को तो खोज रहा हूं जो पड़ोस में किसी बच्चे के सिर में लग जाने पर चोट,दौड़ पड़ती थीं अपने घर… हल्दी की गांठ लाने को।
रहती थीं सुबह से शाम तक, घर गृहस्थी के काम करने की धुन में
लेकिन पहुंचते ही किसी पड़ोसी… बच्चे या औरत के…
छोड़कर सारा काम पूछती थीं कुशल-क्षेम।
झट से हाथों में दे देती थीं… कुछ खाने को।
जिन्हें था खुद से ज्यादा भरोसा गांव, मोहल्ले और पड़ोस के बच्चों पर।
कोई करे न करे उनकी सेवा और मदद बुढ़ापे में…
लेकिन ये सभी तो बच्चे हैं उनके अपने;
ये ज़रूर उनका बुढ़ापा अपने हाथों में ले लेंगे।
मैंने देखा है हमारे मोहल्ले में किसी के घर आया हुआ रिश्तेदार
जैसे मानो लेकर आता था पूरे गांव के लिए मिठाइयों की सौगात…
आने पर उसके… जो आती थीं करके बहाना…
लेने का नई थालियां और गिलास और दे जाती थीं…
लड्डू, पेड़े,बताशे की एक मीठी सी खेप,
जैसे मानो उन्हें ही थी सबसे अधिक चिंता… हम पड़ोस के बच्चों की।
कहां गईं जाड़े की धूप में झुंड बना सहस्तित्व और सामूहिकता को मजबूत बनातीं वे औरतें।
दुःख को समेटे हुए जीवन में अपने, शुभ-अशुभ का करके ख्याल…
केवल एक दूसरे का सुख बतियाती, बांटती-बंटाती वे औरतें।
आने पर किसी अजनबी मेहमान के, घूंघट की कोर को मुंह में दबा,
खटिया पर चादर बिछाती वे औरतें।
दशहरे के दिन साल भर से संदूक में छिपाए सिक्कों को,
बांधकर अपने आंचल की खूंट में, पड़ोस के बच्चों को मेला दिखाई देने को
मोहल्ले में इधर-उधर दौड़ती, एक- दूसरे के घर आती-जाती वे औरतें।
पैदा होने पर किसी संतान के अथवा होने पर शादी-ब्याह,
शगुन का पहला स्वर उठाती वे औरतें।
डोली की विदाई पर गांव की किसी बिटिया की
दूसरों के आंसू पोंछती और अपने आंसू छुपाती वे औरतें।
कोई भी हो किसी घर का, निकलता देख उसे किसी काम से,
घर के बाहर उसकी यात्रा का मंगल मनाती वे औरतें।
खुद दबा गले में अपने बरसों की खांसी,
दूसरे की खांसी का काढ़ा पकाती वे औरतें।
देकर पर्व और त्योहारों में हाथों से अपने सुहाग की निशानियां,
दूसरों को सुहागिन बनाती वे औरतें।
खुद रहकर भूखे पेट, अन्नदान देने का उत्सव मनाती वे औरतें।
उजड़ने, टूटने और बिखरने पर गांव में किसी घर के,
अपने घर को उजड़ों का आसरा बनाती वे औरतें।
पूछने पर पता चला, नहीं रहीं सब की सब।
जा छुपीं हैं कब्रों में, चढ़ गईं चिताओं पर।
अब बचीं हैं एक आध ही…
सबसे पहले दुनिया से उठने और
दूसरों को जीने का ढाढस बंधाती वे औरतें।
देखकर यह सोचता हूं मैं अब कि
किसलिए बदल गई है गांव की सामाजिकता
क्योंकि नहीं रहीं, उसके निर्वाह की सूत्रधार वे औरतें।
जो थीं किसी भी मां के पुत्र हित, यशोदा सम
उस पर अपना मातृत्व लुटाने वाली वे औरतें।
(त्वरित गति से बदलते समय के क्रम में विरासत और संबंधों को अपना जीवन देकर सहेजने वाली एक सहृदय ग्रामीण मातृ पीढ़ी के युगीन अवसान पर केंद्रित कविता।)
03.09.2020