परीक्षाओं के मौसम और ज़िंदगी का अंकगणित

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बताते हैं जानकार और…

बचपन में पढ़ा भी था ऐसा किताबों में

कि मौसम है…

समय के क्रम में वातावरण की एक स्थिति या दशा

जब बदलता है यह

तो बदल जाते हैं वातावरणीय तत्त्व;

और उनके प्रभावकारी कारक भी ।

रहता है यह कभी कुछ पल, कभी कुछ घंटे और कभी कुछ दिन…

था वह सप्ताह का अंतिम दिन…

और शायद रोज़ के नियत कामों से छुट्टी का भी

बैठा था घर के बरामदे में,

चाय और अखबार लेकर सुबह के वक्त मैं…

तभी देखा गली में दो बच्चों को आपस में बात करते हुए…

कल अंकगणित की परीक्षा है भाई!

भगवान जाने क्या होगा ?

एक ने दूसरे से कहा।

नज़र आसमान की ओर गई…मौसम बदल रहा था…

बारिश की बूंदों ने उगती धूप को ढँक दिया था;

संभवतः वे बच्चे ट्यूशन से घर जा रहे थे

किताबें भींग न जाएँ

इस डर से दीवार की ओट में छिपते से…

गली का एक किनारा पकड़े,दीवार से बिलकुल चिपककर चलते हुए… ।

महीना था वह जुलाई का…

अचानक सावन की पुरवा बयार ने

बारिश की झड़ी को कर दिया हो जैसे एक किनारे।

आसमान साफ़ हुआ धूप फिर चमक उठी…

मौसम फिर बदल गया था…

दूसरा लड़का कह उठा,

चलो दोस्त! अपना काम कोशिश करते रहना है।

दोनों के चेहरे धूप में धूप की ही तरह चमक उठे…

क्या बारिश केवल हमें परेशान करने के लिए आई थी?

एक ने कहा… ।

हाँ,जैसे यह परीक्षा…यह भी तो बारिश की ही तरह है,

बेवज़ह गीला कर देती है…

सही कहा,लेकिन यह धूप की तरह भी तो है।

देखते नहीं,सुई की नोंक की तरह जैसे चुभती है यह धूप;

वैसे ही परीक्षा भी तो चुभती ही रहती है दिलोदिमाग में ।

कभी अनजाना डर,कभी अनकही परेशानी तो कभी अनवरत स्पर्धा बनकर… ।

पेशे से शिक्षक हूँ…स्वभाव से थोड़ा-बहुत संवेदनशील भी।

सोचने लगा…

सच ही ये बच्चे परीक्षा से डर गए हैं

या फिर इनकी बातों में है ऐसा कुछ गंभीर

जिस पर हम कभी सोचते ही नहीं…

अनजाने में या जानबूझ कर भी।

सोचना भी आलस देता है,लेकिन आज आलस टूटता – सा लगा।

टी.वी. के किसी चैनल पर बजता गीत सुनाई पड़ा…

“बादल,बिजली,चंदन,पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें कई-कई बार।”

देखा,बच्चे दूर जा चुके थे;गीत बज चुका था…

बाहरी मौसम स्थिर था,लेकिन मन का मौसम बदल चुका था।

सोचने लगा,बचपन से लेकर पढाई पूरी करने तक जितनी भी परीक्षाएँ दीं;

आया होऊं अव्वल भले ही उनमें…

लेकिन डर तो रहता ही था कि क्या पूछा जाएगा?

कैसे लिखूँ,कितना लिखूँ क्या बताऊँ कि अंक न कटें।

लेकिन ऐसा लगा कि मेरी अपनी ही सोच कुछ रोमानी है

क्योंकि विद्यार्थी जीवन तो इससे लबरेज़ होता ही है न।

और इन सबके बीच,

एक बात यह भी तो बिलकुल सच ही है;

कि अंक भी ज्योतिषीय प्रकृति के होते हैं… ।

कटते-जुड़ते और कटते ही रहते हैं…

बिलकुल अख़बारों के दैनिक भाग्यफल की तरह।

हालाँकि, उम्र के जिस दौर में समझ में आई यह बात…

वक्त और ज़रूरतें बदल गईं थीं तबतक

और मौसम भी बदल गया था…

हो गया था तबतक असल जीवन की कक्षा में प्रवेश।

विदा हो गई थी रूमानियत चेहरे से,सोच से…

बोलचाल,खानपान और पहनावे से भी।

अब केवल अंक थे और उनका ज्योतिष भी…

जिन्हें पाना और जिनके मुताबिक चलने की कोशिश करना था,

ज़िंदगी के ठोस और खुरदरे यथार्थ के मद्देनज़र।

यह बात अलग है कि इसके परिणाम नहीं निकलते;

शायद ताउम्र और मरते दम तक भी।

धरती पर धरती के मौसम बदलते रहते हैं…

लेकिन धरती पर जीते-रहते मनुष्य के लिए

जीवन का हर क्षण है परीक्षा।

हाँ क्यों नहीं…तभी तो ठनी है रूस और अमेरिका में

और बमों से निर्दोष यूक्रेन जल रहा है;

आलसी होती जा रहीं हैं…

आदमी की तथाकथित भावी पीढ़ियाँ;

और चिंता में उनके उज्जवल भविष्य की,

दिनभर  काम में खटकर, घर लौटा हुआ संवेदनशील पिता

पल-पल गल रहा है… ।

लौट आया हूँ अब फिर मैं भी, मन के गलियारों से…

चाय ख़त्म हो गई है अखबार की ख़बर छूट गई है बिन पढ़ी-अधूरी।

बच्चे ठीक थे,और वह गीत भी…

नहीं बदलते हैं परीक्षाओं के मौसम,

और इन्हीं अनबदले मौसमों में जीवन की सतत परीक्षाओं के;

जीना तो पड़ता ही है आदमी को,

कभी बादल बनकर,तो कभी पानी बनकर।

क्योंकि बिजली और चंदन बनना मयस्सर नहीं सबको;

और यह कहना भी है पूरे का पूरा…

परीक्षा के अंक,इंटरनेट-ज्योतिष और अखबारी भाग्यफल की तरह… ।।

इसी पर तो भरोसा करती है जनता भी…

और आख़िरकार सारी समझ-सूझ रखकर भी हम हैं तो जनतांत्रिक ही…।

 

-पीयूष रंजन राय

जुलाई-28,2023

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