प्रेम की परिधि:परिणय

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सुना था…प्रेम की कोई परिधि नहीं होती,

वह असीम,निस्सीम अनंत और अनुपम होता है;

बिलकुल निर्गुण ब्रह्म की तरह ।

विश्वास भी करता था,और क्यों न करूँ

लोग कहते थे यह अनुभूति है, भावना है…

इसे बंधनों में बाँध पाना संभव ही नहीं।

जितने लोग,उतनी व्याख्याएँ ;

जैसा ज्ञान, वैसा और उतना ही विभ्रम…

फिर सोचा, जब दूध में वास करते घी

और लकड़ी में समाई आग की तरह;

यह सबके ह्रदय में अवस्थित है तो

क्यों न इसे ख़ुद जिया और समझा जाए…

बैठे-बैठे सोचने लगा…

जब इसी प्रेम का पोषण करने के लिए

निर्गुण ईश्वर सगुणता का आश्रय लेकर देही बन सकता है

तब वह प्रेम निर्गुण कैसे हो सकता है?

और सच तो यह है कि इस संसार में कुछ भी निर्गुण नहीं

सबमें गुण है,सबका अपना गुण है…

यही तो प्रेम है…

इसलिए ही वह संसार के प्रत्येक रूप,देह और अणु-परमाणु में समाया है

गुरुजन कहते थे, प्रेम अनन्य होता है।

उसकी परिधि के मध्य स्थित प्रेमी, कभी यह नहीं चाहता

कि जिससे जितना और जैसा प्रेम वह करता है ;

उससे वैसा और उतना ही प्रेम कोई दूसरा भी करे।

याद आईं गोपियाँ…

उनका प्रेम भी ऐसा ही था,

सब अनन्य भाव से भजती थीं;

प्रेममय परमात्मा श्रीकृष्ण को…

यह तो निश्चित हुआ कि प्रेम ससीम और सपरिधि होता है।

क्योंकि सामान्य देही कृष्ण तो नहीं,

उसमें उन जैसी विलक्षणता तो नहीं।

फिर स्मृति हो आई परिणय-बंधन की…

अनुभव हुआ, कि इसमें है वह विलक्षणता;

जो बनती है प्रेम के परिधि-बंधन का आधार।

सच ही यह अत्यंत अद्भुत है कि कभी-कभी तो,

पहले यह दो अपरिचित देहों को स्वयं में बाँधकर;

बाद में उनके मध्य सृजित करता है देह का अनुशासन और आत्मा का प्रेम।

और इसकी सीमा में ससीम होकर ही वह प्रेम  होता है असीम और अनन्य।

इसी के भीतर जन्मती हैं जीवन की मर्यादाएँ ,

इसी से उत्पन्न होता है दांपत्य ;

जो सृष्टि की लौकिकता का आधार है।

जो मनुष्य को बनाता है सनाथ,

यही देता है उसे पिता बनने का गौरव ;

और विभूषित करता है…

स्त्री की सामान्यता को जननी की महानता से…

जिसके आश्रय को पाकर अरूप,अनाम, अलक्ष्य ऊर्जा-प्रवाह को

जीवन रूपी उसकी नैसर्गिक गति मिलती है… और

निराकार ईश्वर को, उसके कर्त्ता होने तथा

स्वयं की सगुणता सिद्ध करने का अवसर।

मन ने मान लिया था…

प्रेम का वास्तविक आधार परिणय ही है।

 

 

 

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