मानवी मस्तिष्क को ज्ञान एवं विवेक का सबसे उन्नत संग्राहक तथा बुद्धि,मेधा और मनीषा को उसके सृजन के सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण अभिप्रेरक मान कर विश्व को एक सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक दार्शनिक चिंतन की उपलब्धि कराना विश्व को भारत की देनों में से एक प्रमुख देन कही जा सकती है। विचारों की विभिन्नता,तर्क एवम् प्रश्न पिपासा चिरकाल से भारतीय तत्त्वचिंतकों के उर्वर मस्तिष्क को विचार वैभव से समृद्ध करते रहे हैं।भारत में दार्शनिक विचारों के उद्भव के मूल में इनका भी योगदान रहा है।
भारतीय दर्शनों में सबसे पहले जिस दर्शन की चर्चा की जा सकती है, मेरे मत से वह वैशेषिक दर्शन है। वैशेषिक शब्द विशेष से बना है।अन्य दर्शनों की अपेक्षा विशिष्ट और अधिक युक्तियुक्त होने के कारण दर्शन की इस धारा को यह नाम मिला।इस दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद माने जाते हैं। वैशेषिक दर्शन प्राचीन भारतीय भौतिक शास्त्र आधारित परमाणुवादी दर्शन है।इसके अंतर्गत चार प्रकार के परमाणु पृथ्वी,जल,तेज तथा वायु स्वीकार किये जाते हैं जो अनंत हैं और इन्हीं के विभिन्न प्रकार के संघटन से संसार की उत्पत्ति बताई गई है।वैशेषिक दर्शन में ईश्वर और जीव को दो नित्य तत्वों के रूप में स्वीकार किया गया है।यह दर्शन जीव को जागतिक जीवन में धर्म-पालन की प्रेरणा देता है।वैशेषिकों के मत में जिसके अनुपालन से निश्रेयस तथा अभ्युदय की प्राप्ति हो वही धर्म है।इसकी कतिपय मान्यताएँ इस प्रकार हैं- वैशेषिक दार्शनिकों के अनुसार, भाव पदार्थ छह हैं-द्रव्य,गुण,कर्म ,सामान्य,विशेष तथा समवाय।इसी तरह अभाव पदार्थ चार हैं-प्रागभाव,प्रध्वंसाभाव,अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव। वैशेषिक दर्शन के प्रणेता आचार्यों का मत है कि कार्य के समवायी कारण और गुण तथा कर्म के आश्रयभूत पदार्थ को द्रव्य की संज्ञा दी जाती है।द्रव्य को ही किसी कार्य का उपादान कारण माना जाता है।द्रव्य में गुण और क्रिया का सन्निवेश होता है।इसके अंतर्गत स्वीकृत द्रव्य नौ हैं-पृथ्वी,जल,तेज,वायु,आकाश,काल,दिक्,आत्मा और मन।वैशेषिक दर्शन गुणों की संख्या को चौबीस स्वीकार करता है;जो क्रमशःशब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध,संख्या,परिमाण,पृथकत्व,संयोग,विभाग,परत्व,अपरत्व,सुख,दुःख,बुद्धि,इच्छा,दोष,प्रयत्न,गुरुत्व,द्रवत्व,स्नेह,संस्कार,धर्म तथा अधर्म हैं।उपर्युक्त वर्णित इन चौबीस गुणों में रूप के सात रस के छह गंध के दो तथा बुद्धि के दो प्रकार हैं।वेग,भावना और स्थिति स्थापक के रूप में जहाँ संस्कारों की संख्या तीन बताई गई है वहीँ वैशेषिक आचार्यों ने कर्मों की संख्या पाँच बताई है जो उत्सर्पण,अपसर्पण,आकुंचन,प्रसारण तथा गति हैं।वैशेषिकों की यह प्रबल मान्यता थी कि किसी भी कार्य का कारण उसमें पहले से विद्यमान नहीं होता अपितु वह सदैव नया होता है।