मित्र! तुम्हें अनेक रूपों में देखा पाया और जिया है मैंने।
जब जब सोचता हूं कि तुम कौन हो?
तो आ जाते हैं तुम्हारे बिल्कुल नए से रूप आंखों के सामने।
बार-बार भ्रमित होता हूं कि तुम्हीं से तो सबसे अधिक परिचित हूं… फिर ऐसा क्यों?
बार-बार तुझको पूछता हूं, तलाशता हूं, पाता हूं… खो भी देता हूं।
फिर खोजता हूं, फिर पाता हूं सहेजता हूं… बचाता हूं, छुपाता हूं
तुम्हें ही कहता, गाता, सुनाता, बतियाता भी हूं।
पाता हूं जीवन को तुम्हारे लिए,
तुममें ही पगा, सना और डूबा हुआ।
गर्व है आज जिन कुटुंबी जनों पर मुझे
उनकी पहली परिभाषा तुम ही तो हो।
तुम मीत हो तो कोई मन का मीत मिला;
तुम गीत हो तो जीवन संगीत मिला।
तुम हो प्राण तो प्राणों को गति मिली;
तुम से ही जीवन को प्राप्त हुई संगति;
और तुम से ही जीवन को हर नई सीख मिली।
रूठना-मनाना, खाना-खिलाना, हंसना-हंसाना, रोना-रुलाना, रूठना-मनाना
क्या कहूं? कितने भाव, कितने गीत,
कितने चित्र, कितने राग, कितने रंज
कितने दुख कितने सुख
कितने-कितने जीवन के अनुपमेय,अद्भुत आकर्षक चित्र
हमने बनाए, जिए, और बांटे हैं साथ-साथ।
अब तो यही कामना है रहो तुम सुप्रसन्न,
रहो तुम हरे-भरे रहो तुम इतने छतनार
कि जीवन के सुख-दुख, धूप-छांव
बनने-बनाने और मिटने-मिटाने के विषम दांव
सबमें तुम्हारी; सजल, सहज, सनेहसिक्त
अनुपम और मृदुल सद्भाव युक्त मैत्री की घनी छांव
मुझको सदैव मिलती रहे।