राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और उनकी भारतभारती

Samalochana

भारत की सांस्कृतिक चेतना के अग्रदूत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की सर्वाधिक पठनीय रचनाओं में भारतभारती का स्थान सर्वोपरि है।अतीत,वर्त्तमान और भविष्यत् शीर्षक तीन खण्डों में रचित इस कृति को गुप्त जी ने एक निश्चित प्रतिक्रिया के साथ लिखा।अतीत खंड में कवि की दृष्टि हम कौन थे? का स्पष्टीकरण     प्रस्तुत करती है।उनका सारा ध्यान अतीत के गौरव गान पर है, भारतेंदु की भांति गुप्त जी देश  के वर्त्तमान से असंतुष्ट दिखाई देते हैं।यहाँ से यदि भारतभारती पर नज़र डाली जाए तो वह गुप्त जी की वाणी में भारतेंदु की चिन्ताधारा का विकास प्रतीत होती है।

अतीत खंड में इस कृति का मूल स्वरआत्मविश्वासात्मक,उद्बोधनपरक और आशावादी है।आर्यत्व और हिंदुत्व के प्रति प्रशंसात्मक स्वर,भारत के अतीत-गौरव को लेकर एक अतिरंजन आत्मविश्वास तथा प्राचीनता को कभी भी प्रश्नांकित न करना गुप्त जी के काव्य का दुर्बल पक्ष दिखाई देता है।यहाँ हमें गुप्त जी की इस रचना को पढ़ते हुए परंपरा के एक पक्षीय गुणगान से प्रेरित पुनरुथानवादी स्वर की झंकृति स्पष्ट रूप से होती है।वास्तव में इस गुणगान के पीछे तर्क नहीं अपितु भावना का प्राबल्य है। पश्चिम के प्रति वे (others)का भाव और हम तथा वे के माध्यम से भारत और पश्चिम की तुलना को इस खंड की काव्य-वस्तु के प्रतिनिधि परिचयात्मक भाव के रूप में लिया जा सकता है।

भारतभारती का दूसरा खंड वर्त्तमान खंड है यहाँ गुप्त जी अपने समय की आलोचना प्रस्तुत करते हैं भारत की दुरवस्था पर शोक प्रकट करते  हुए हिन्दू जाति की दुर्गति की चिंता करते हैं।इस खंड में अपनी त्रुटियों को रेखांकित करना एक बड़ी बात कही जा सकती है,एक महत्वपूर्ण आधुनिक विवेक कहा जा सकता है। वास्तव  में यह खंड क्रीटिक आफ़ द एज की सजग,सचेष्ठ काव्यात्मक प्रस्तुति है।भारतभारती के इस वर्त्तमान-वर्णन -पथ से गुज़रते हुए यह बात अत्यंत सहजता से समझ आ जाती है कि गुप्त जी को बाज़ार,व्यापार तथा अर्थव्यवस्था की अत्यंत तथ्यपरक तथा आधुनिक समझ है।गाँधी जी के स्वदेशी आन्दोलन की पहली साहित्यिक अनुगूँज भी भारतभारती में ही दृष्टव्य है। गुप्त जी द्वाराअभिजात संस्कृति का विरोध,गुरुकुल और ग्राम्य संस्कृति का पोषण,शिक्षा की प्रासंगिकता पर विचार,निज़ीकरण की खिलाफ़त,कृषि-व्यवस्था के विघटन तथा आयात-निर्यात पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी,साहित्यिक परिदृश्य की व्यापकता का समर्थन,हिंदू धर्म की प्रशंशा करते हुए भी उसके प्रति अत्यंत पैना आलोचकीय विवेक,ब्राह्मणों की आलोचना,वर्ण-व्यवस्था के विरोधी न होते हुए भी कर्मच्युत हिन्दू समाज की तीव्र आलोचना के साथ, क्या हो गए? की सजग नागरिक चिंता वर्त्तमान खंड को भारतभारती की रचना का मेरुदंड बनाती है।

भारतभारती का तीसरा खंड भविष्यत् खंड है।इसमें कवि की प्राथमिक चिंता और क्या होंगे अभी? की है।इस खंड में गुप्त जी हतभाग्य हिन्दू जाति के उद्बोधन का मॉडल प्रस्तुत करते हैं। यहाँ उच्च आदर्शों के अनुकरण पर बल,पुनरुत्थानवादीदृष्टि और अतीतोंमुखता के साथ ही भविष्य के आह्वान की सजगता जहाँ भारतभारती को आधुनिक बनाते हैं वहीं गुप्त जी का सामाजिक एकता,आपसी मेलजोल ,पौरुष और आत्मविश्वास पर बल,ज्ञान-कर्म तथा विवेक के मध्य समन्वय-स्थापन पर जोर  उनके द्वारा गीता के कर्मवादी दर्शन की संशोधित स्वीकृति का स्पष्ट चित्र पाठक के सम्मुख उपस्थित करती चलती है।इस खंड में रचनाकार तत्कालीन नवजागरण आन्दोलन का ह्रदय से स्वागत करता है अतीतगायन  को मात्र गौरव-गान न मानकर उसमे एक सजग आलोचनात्मक विवेक को समाहित कर देना भारतभारती के इस खंड को सर्वथा श्रेयस्कर और पठनीय कविता तथा उसे एक कालजयी राष्ट्र-कृति बनाते हैं।

वास्तव में गुप्त जी के काव्य-मानस को समझने के लिए इस बात को समझना आवश्यक है कि भारतीय नवजागरण एवं नवोत्थान की मूल चेतना सांस्कृतिक   थी।इस प्रक्रिया में परंपरा के पुनर्शोधऔर नए सिरे से पहचान की आवश्यकता को उस समय के राजनेताओं,समाज-सुधारकों तथा सजग साहित्यकारों सभी ने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया था।इसलिए उनका यह कहना कि

हम कौन थे?क्या हो गए?और क्या होंगे अभी?आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी उनके अपने समय की मानसिक बनावट का वास्तविक चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित करता है।

 

..

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *