लोचन मग रामहिं उर आनी…सीता स्वयंवर का मानस-प्रसंग(भाग-2)

Katha-Prasang

रघुवर को देख मंत्रमुग्ध हुईं  वैदेही ने अपने नेत्रों के रास्ते रघुवीर की अद्भुत अतुलनीय छवि को हृदयस्थ कर नेत्रों के कपाट बंद कर लिए और प्रीति का हृदय में आह्वान कर राम के ध्यान में लीन हो गईं।सीता को राम-प्रेम मय जान सखियों के मन में निःशब्द संकोच का उदय होने लगा। सीता अभी इसी अवस्था में थीं कि उसी समय दोनों भाई लता-कुंजों के बीच से बादलों के आवरण को चीरकर उदित होते निर्मल चंद्र की भांति प्रकट हुए। राम-लक्ष्मण सौंदर्य की सीमा हैं,नील और पीत जलज सदृश शारीरिक वर्ण वाले दोनों भाइयों के नव रक्त कमल जैसे रतनारे नेत्र हैं। उनके अंग-प्रत्यंग की शोभा अनेक कामदेवों की सम्मिलित सुषमा को लज्जित करने वाली है।दिनकरकुल-भूषण श्रीराम की इस रूप-छवि को देख सखियों को अपनी सुधि भूल गई है।शील और संकोच से भरीं जनकनंदिनी ने पुनः अपने नेत्र खोले हैं।नेत्रों के सम्मुख है त्रिभुवन मोहन राम का रूपसमुद्र और मन में पिता के दारुण प्रण का स्मरण।जानकी का चित्त क्षुब्ध और विचलित-सा हो गया है। सीता के ह्रदय को राम के प्रेम के वश में हुआ देख सखियों ने विलंब होने तथा कल पुनः आने की बात कहते हुए भवन लौट चलने का प्रस्ताव किया है।जिनकी वक्र दृष्टि मात्र से यह संसार वेदना और भय के स्थायी आश्रय-स्थल  के रूप में परिवर्तित हो सकता है ऐसी प्रभावसुभगा सीता ने सखियों की बात का ध्यान कर माता के भय को मान तथा स्वयं को पिता के आधीन समझ शीघ्रता से अपने कदम राजमहल की ओर बढ़ा दिए हैं  परंतु जिसे राम सम्मोहित करें वह उनके सम्मोहन-पाश से सहजता से मुक्त कैसे हो सकता है?सीता भी इस सुषमा-सम्मोहन पाश की परिधि से वियुक्त नहीं हैं । मृग-पक्षियों और वृक्षों को देखने के बहाने वे बार-बार मुड़कर राम की ओर देखतीं हैं और राम की अलौकिक रूप-छवि के बारंबार दर्शन से उनके हृदय में राम के प्रति उपजी पुनीत प्रीति प्रत्येक बार स्वयं को द्विगुणित करती जाती है।शिव के उस महान धनुष की कठोरता और पिता के प्रण की विकटता जहाँ वैदेही की व्यथा को बढ़ाते हैं वहीं राम का उत्तम यश, उन्हें रघुवीर-प्रिया होने की सौभाग्य-प्राप्ति का संबल प्रदान करता प्रतीत होता है। सीता को लौटता हुआ जान  रघुकुल तिलक राम भी अपने मन में उनके प्रति उपजे प्रेम को कोमल स्याही की भांति बना स्वयं की हृदय-भित्ति पर उनकी प्रीति-पूरित एवं शोभा-गुण संपन्न छवि को अत्यंत विचित्र ढंग से सहेज रहे हैं।

जो राम समस्त सृष्टि को स्वयं का प्रीति-भाजन बनाते हैं,वे स्वयं ही जिसके प्रीति-भाजन बन जाएँ उसे इसके अतिरिक्त किसी अन्य सौभाग्य की क्या आवश्यकता,परंतु लोकरीति और संसार सुलभ आचरण को प्रदर्शित करतीं जानकी अखंड सौभाग्य की प्रदायिका गिरिराजराजतनया जगत्जननी भगवती भवानी के मंदिर में पुनः प्रविष्ट हुईं और उनका चरण-वंदन कर उनसे प्रार्थना करने लगीं…

पर्वतराज हिमाचल की पुत्री होने के कारण पार्वती,गिरिजा इत्यादि नामों से विभूषित,शिव के मुख रूपी चंद्र को अपने परमप्रेममय नेत्रों से चकोरी की भांति अपलक निहारने वाली शिव-प्रिया,आप सम्पूर्ण शुभ के स्वामी गणेश जी तथा कार्तिकेय जी की माता होने के गौरव से मंडित हैं। हे माता! आप ही जगत्जननी तथा समस्त सृष्टि की स्वामिनी हैं।आपका विद्युत्कांति समुज्वल स्वरूप जगत वन्दनीय है।आप ही सृजन स्थिति और अवसान स्वरूपा होकर इस संपूर्ण सृष्टि काआदि,मध्य और अवसान हैं। वेद भी आपके अमित प्रभाव के वर्णन में असमर्थ हैं।हे विश्वविमोहिनी!स्ववशविहारिणी!आप सर्वश्रेष्ठ पतिपरायणा और संसार की समस्त स्त्रियों के पातिव्रत-धर्म का आदर्श एवं आधार हैं।आपकी अतुलित महिमा का वर्णन सहस्रों सरस्वती तथा शेष भी नहीं कर सकते। हे पुरारिप्रियतमा!आप के चरणों की सेवा अर्थ,धर्म,काम,और मोक्ष जैसे जीवन के चारों फलों को एकत्र सुलभ कराने वाली है।आप अपने भक्तों को उत्तम,मनोवांछित वर प्रदान करने वाली हैं।आपके पुनीत चरण-कमलों का अर्चन करके देवता,ऋषि-मुनि और सामान्य मनुष्य सभी समानरूप से सुख के भागी होते हैं। हे समस्त प्राणियों के ह्रदयरूपी नगर में वास करने वाली समस्तजन हृदयेश्वरी!आप मेरे हृदयगत मनोरथ को भी भलीभांति जानती हैं,इस कारण मैंने उसका प्रकट-कथन नहीं किया है। ऐसा कहकर सीता, भगवती गौरी के चरणों में नत हो गईं ।

वस्तुतः राम ही सीता के हृदयस्थ मनोरथ हैं और उनकी परिणीता होना ही उनकी संपूर्ण समर्पण-साधना का सर्वोत्तम फल; राम के प्रति निष्कलुष अनुराग से पूरित और सर्वतोभावेन समर्पित जान यह फल उन्हें भवानी ने अपने आशीष और राम को ही पति रूप में प्राप्त करने की निश्चित आश्वस्ति के रूप में  प्रदान कर दिया। मुदितमना वैदेही भवन को लौटीं…

हृदय में जनकनंदिनी के सुभग सौंदर्य की सराहना करते हुए राम  भी गुरु विश्वामित्र के पास आ गए।गुरु की चरण-सेवा के पश्चात दोनों भाइयों ने रात्रि-विश्राम किया।

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