जब भी सोचता हूँ… करूंगा कुछ बेहतर,
करूंगा कुछ नया और आकर्षक
कुछ ऐसा जिससे मिल सके आत्मतोष
और कर्तृत्व का थोडा-बहुत गौरव भी
संभावनाओं के मार्ग अनायास रुद्ध होने लगते हैं…
बनने लगता है जैसे अकारण ही एक भिन्न वातावरण
चलने लगती हैं षडयंत्रकारी हवाएँ चतुर्दिक
आलोचनाओं के बादल, वर्षा-संवाही मेघ की भांति
घुमड़ने,घहराने लगते हैं अस्तित्त्व की धरा और नियति के आकाश में
मानों जैसे निमग्न ही करके छोड़ेंगे अपयश के पंक में…
बहुतेरे सावन,पतझड़ और मधुमास बीते
बीतीं अनेक सौर और चंद्र आधारित समय की आवधिक गणनाएं और रूप-छवियाँ
बदल रहा है नित्य प्रति शरीर का सौष्ठव संतुलन और मस्तिष्क की क्रियाशीलता का स्तर भी
नहीं बदल पाया तो केवल…तथाकथित भाग्यावरोध
अचानक एक दिन खुलने पर नींद,रात के तीसरे प्रहर
बैठ गया अनमना होकर…
मनःमस्तिष्क के तनिक स्थिर होने पर,
ध्यान की धारा का प्रवाह बचपन की ओर हो चला…
याद आए वे दिन; जब किसी पड़ोसी बच्चे से खेल में भी हार जाने पर
अनुभूति होती थी स्वयं के तुलनात्मक तौर पर कम भाग्यशाली होने की
घर पहुँचने पर माँ या मौसी बुआ या चाचा कोई न कोई देख लेता था
चेहरे की उदासी और पढ़ लेता था मन का दुःख
तत्काल आसन्न दुर्भाग्य को करते हुए समाप्त
थमा देता था हाथों में मिठाई या बताशा
और बना लेता था योजना शाम के वक्त पास में लगे मेले में चलने की
और खरीद देता था ऐसा कुछ कल्पनातीत,
जिसे सोते समय साथ और अगली सुबह हाथ में पकडे
हम स्वयं को अतीव भाग्यशाली समझने लगते थे
उस दौर में चीज़ें कम थीं और परिवेश मनुष्य केन्द्रित
इसलिए संभवतः लोग वस्तुनिष्ठ न होकर व्यक्तिनिष्ठ अधिक थे
आज चीज़ें बहुतायत में हैं और उनकी चाहत भी
वस्तुओं का ही संग्रहालय बन गया है घर
और निकल कर उससे बाहर,उसमें रहता-बसता आदमी
तलाश रहा है वस्तुओं के लिए और अधिक साधन
जिसे आज की अत्याधुनिक भाषा में उसने आजीविका की संज्ञा दे दी है
इसी आजीविका की तलाश ने उसे किया है अपनों से दूर
और भटकाया है दर-बदर
आजीविका को प्राप्त करना है उसकी तथाकथित सफलता का सूचक
पर आजीविकाओं का भी अपना भाग्यावरोध है
जो निर्भर करता है उनकी प्रकृति और अंततः उनसे प्राप्त होने वाली प्राप्ति पर
सोचने लगा,आजीविकाओं की प्रकृति पर तो
वह काफी विचित्र सी महसूस हुई
हम आजीविका पाना चाहते हैं अपने और अपनों के लिए
लेकिन वह ले जाती है हमें स्वयं से अपनों से दूर
फिर प्राप्ति का तो पूछिए ही मत
जिससे मिलेंगे वही परेशान है
जो मिलता है उसे कम बताता हुआ
जो कुछ करता है उससे और जो करना चाहता है उसे न कर पाने से क्षुब्ध और असंतुष्ट
यह समस्या घर और कार्यस्थल दोनों जगहों पर है
कर्त्ता का बोध कहीं नहीं होता उसे
लगता है पूरा न पड़ पाना मनुष्य की नियति भी है
और जीवनपर्यंत यही है उसका भाग्यावारोध भी
तब वस्तुनिष्ठ मनुष्य आख़िर जाए तो कहाँ और करे तो क्या?
विकल मन ने बस एक ही उत्तर तलाशा था
अंतस से एक निष्कर्ष ध्वनि फूटी वस्तुनिष्ठता का तिरोधान कर व्यक्तिनिष्ठ बनो
क्योंकि मित्र!तुम्हारी सारी वस्तुनिष्ठता भी तो अंततःव्यक्तियों के लिए ही है।
मैंने माना संभवतः इसलिए ही पूर्वज प्रकृति की ओर लौटने को कहते थे
फिर चाहे वह नाम रूप जगत की दृश्यमान प्रकृति हो
या मनुष्य के अंतःकरण की अगोचर प्रकृति
जहाँ सबमें जीव ब्रह्ममय है और ब्रह्म जीवमय
जब तक ऐसा नहीं होता भाग्यावरोध प्रतिक्षण वर्तमान ही रहेगा
वस्तुतः कर्त्ता होने के तथाकथित गौरव से मुक्ति पाना ही
मनुष्य का सबसे बड़ा गौरव भी है और आत्मतोष भी…