वैषम्य की लय है… जीवन…।

Kavita

एक दिन बैठा सोच रहा था,

जीवन भर मनुष्य क्या करता है?

कौन से यत्न, कैसे प्रयत्न?

किसकी और कैसी साज संभाल?

केवल अपनी,या साथ-साथ अपनों की

या अपने बनाए हुए संसार की;

अपनी स्मृति, स्वप्न और परिचय के वृत्त की।

तनिक विचार करने पर, मन के किसी कोने से उत्तर मिला…

हां! यह सब कुछ करता है मनुष्य।

फिर भावनाओं का उद्योग और उद्वेग आगे बढ़ा…

सोचने लगा, क्या पाता है मनुष्य इनके परिणाम स्वरूप?

अंततः उत्तर आया… विषमता।

लोग मानेंगे नहीं, पर यह सच है;

विषमता ही है जीवन का प्रतिफल।

वही है मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी साधना;

वही है उसके अंततः मनुष्य होने का साक्ष्य और लक्ष्य भी

और वही है उसके मनुष्यत्व की चरम परिणति भी।

विचित्र है न, कि जीवन भर मनुष्य विषमताओं के सम्मुख और अभिमुख हो उनसे लड़ता है…

उन्हें गढ़ता, बारंबार आकार देता, सुडौल बनाता, उनमें आकर्षण पैदा करता है;

और समता तथा सफलता की अमूर्त कामना करता है।

ज़रा गौर से देखिए तो आप पाएंगे कि विषमताएं,

बड़ी अनगढ़, रूखी, बेडौल, भद्दी, बेमानी, बेजान और बेसुरी होती हैं।

न मानें, तो जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के जीवन-संघर्ष पर दृष्टिपात कीजिए…

आजन्म और आमरण, लड़ता रहता है मनुष्य

अपने जीवन की सारभूत विषमताओं से;

और बनाता रहता है उन्हें अपने दृष्टि और प्रयत्न की ससीमता में

सुगढ़,सरस,सुडौल, सुरुचिपूर्ण, सोद्देश्य सजीव और सुरीला।

क्योंकि वस्तुतः वैषम्य की अराधना ही है जीवन,

वैषम्य को बांधना ही है जीवन।

और सांसों के तार पर विषमता के गीत को

समता की लय में साधना ही है जीवन।

विषमताओं में ही है मनुष्य की जिजीविषा का उद्गम स्रोत।

इतना तो आप जानते ही हैं कि उद्गम न हो तो धारा संचरित नहीं होती।

विषमताएं नहीं होंगी, तो जीवन नहीं होगा और मनुष्य भी नहीं।

तब क्यों न कहा जाए कि हर मनुष्य महापुरुष है, गांधी, गौतम और अंबेडकर है।

क्योंकि निरंतर विषमता से लड़ते हुए…

समता के स्थापन का अखंड, अविरल, अनवरत प्रयत्न ही तो

उसके अस्तित्व की मूल शपथ है और उसके मनुष्य होने की गवाही भी।

दायरे अपने-अपने हो सकते हैं, हो सकते हैं वे छोटे-बड़े भी;

प्रयत्न की लघुता और गुरुता भी हो सकती है;

लेकिन प्रयत्न नहीं न हो, यह नहीं हो सकता।

तब, यदि हम मनुष्य हैं तो विषमताएं सबकी हैं;

और सब विषमताओं से जूझते, समता के साधक हैं।

पीयूष रंजन राय

29.06 2021

 

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