श्रीहत भये हारि हिय राजा…(सीता स्वयंवर का मानस प्रसंग… भाग 4)

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  • राजा जनक द्वारा आयोजित सीता के स्वयंवर की सभा का सौंदर्य अपने चरम पर है। चारणों ने राजा की स्वयंवर प्रतिज्ञा का सार्वजनिक उद्घोष किया। सभा में उपस्थित राजाओं का बल चंद्रमा के समान प्रतीत होता है और शिव का वह दिव्य धनुष उस बल को  ग्रस लेने वाले विकट राहु के  समान दिखता है। भवेश के उस धनुष की विकटता जगत प्रसिद्ध है। रावण जैसे वीर योद्धा भी जिस धनुष का दर्शन मात्र करके वापस लौट गए हों ऐसे दिव्य धनुष का भंजन करने वाले वीर राजा को जानकी के वरण करने का सुअवसर प्राप्त होगा इसका विचार करके स्वयंवर सभा में उपस्थित अनेक राजा मन ही मन हर्षित हो रहे हैं। बल के परीक्षण का  सद्य: उपस्थित अवसर और इसके बदले सीता जैसी कमनीय और सुलक्षणा युवती का शुभ वरण तथा इन के संयोग से विस्तृत होती कीर्ति की सहज प्राप्ति; भला इस अतुलित यशरूपा सन्निधि को कौन प्राप्त करना नहीं चाहेगा? इसी अभिलाषा से  गर्वोन्नत हो कर बड़ी आतुरता से राजा अपने बलाबल का अनुमान करने धनुष के समीप जाते हैं किंतु अनेक प्रकार से प्रयत्न करने पर भी उठाने की कौन कहे? वह अपने स्थान से टस से मस भी नहीं होता। मानो शिव के उस धनुष ने ऐसी सती का स्वरूप ग्रहण कर लिया हो जिसका मन किसी कामी की कामार्त चेष्टाओं और प्रयत्नों के प्रति सदैव अविचल स्थिति में रहता है। धनुष उठाने में असफल राजा उपहास के पात्र बनकर अपनी जगह पर निराश बैठ गए। आमंत्रित राज समाज की ऐसी गति देखकर स्वयंवर की प्रतिज्ञा के कठिन पाश में बद्ध विदेह जनक की व्याकुलता पुत्री के भविष्य का विचार करके रोष में परिवर्तित हो उठी है। अपनी अत्यंत मनोहर पुत्री के वरण को असंभव होता देख राजा जनक को ऐसा प्रतीत होता है मानों विधाता ने सीता के लिए किसी योग्य वर का विधान किया ही नहीं। जनक की रोष-विषाद युक्त वाणी उपस्थित राजाओं के समूह का परिहास करने को विवश हो उठी है। उनके मुख से राजाओं की असफलता पर की गई टिप्पणियां रामानुज लक्ष्मण को अनुचित प्रतीत होती हैं। अपने विमल कीर्ति युक्त वंश का विचार करके लक्ष्मण क्रोधित हो उठे। उन्होंने जनक की आपत्तिजनक वाणी का विरोध आरंभ कर दिया। राम को संबोधित करते हुए श्री लक्ष्मण बोले कि यदि वे आज्ञा दें तो इस धनुष को कौन कहे वे तो संपूर्ण ब्रह्मांड को गेंद की भांति अपने हाथों में उठा सकते हैं। कच्चे घड़े की भांति इसे उठाकर छोड़ सकते हैं और सुमेरु पर्वत को भी मूली की  तरह उखाड़ कर तोड़ सकते हैं। किसी कवक छत्र की भांति ब्रह्मांड को तोड़ने की प्रतिज्ञा करते हुए लक्ष्मण को क्रोधित हुआ जानकर सभी राजा डरने लगे हैं। प्रेम की परिधि में सदा आबद्ध रहने वाले, भक्तजन वत्सल मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने परिस्थिति की विकटता का अनुमान करते हुए संकेत करके लक्ष्मण को शांत कराया और प्रेम पूर्वक लक्ष्मण को बैठने का निर्देश दिया। स्वयंवर की गतिविधियों के मध्य लक्ष्मण जी के इस हस्तक्षेप ने राजाओं के मन में भय, सीता के मन में हर्ष और जनक के हृदय में संकोच मिश्रित आशा के अंकुर का अंकुरण कर दिया।

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