संबंधों का वैभव उन्हें जीने और जिंदा रखने में है।
न होने पर ऐसा ये हो जाते हैं कद क्रमशः दीन,दुर्बल और मृत।
पर संबंधों के संबंध में सबसे बड़ी दुविधा भी है यही।
आज की दुनिया में कहने को दौड़ता लेकिन वस्तुत: रेंगता हुआ आदमी इन्हें जिये और जिंदा रखे भी तो कैसे?
यह प्रश्न मुझे करता है बार-बार उद्वेलित…
कि आखिर जब संबंध बरतने, निभाने, सहेजने और जीने की चीज़ हैं।
और हम मनुष्य स्वभाव से ही सजग, सामाजिक और सहिष्णु हैं।
तब फिर क्यों मरते जाते हैं संबंध?
क्यों हमारी प्रतिबद्धता कटिबद्धता और वचनबद्धता क्षीण होती जाती है इनके प्रति?
लोग कहते हैं समय की कमी इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है।
हां समय की कमी हो सकती है इसका कारण।
पर वही अंतिम तो नहीं।
इस सामान्य और सीधे-सादे से लगने वाले कथन के बीच कहीं न कहीं एक बड़े कारण के रूप में छिपी है…मनुष्य से मनुष्य के बीच होती संवेदना की कमी।
अक्सर सुनता हूं.. संबंध तो हैं पर सहज नहीं, संबंध तो हैं पर मधुर नहीं, संबंध तो हैं पर सजल नहीं।
जब आदमी निरा पैदल चलता था, यही संबंध सहारा होते थे।
वह करता था इन्हें जिंदा रखने का जतन, करता था कोशिश कि ये मरने न पाएं।
क्योंकि यह उसकी ज़रूरत और जीवन का हिस्सा थे।
संसाधनों की कमी भी संबंधों को जोड़ने का बड़ा ज़रिया थी।
जो नहीं होता था हमारे पास,मांगने के लिए उसे
हम रखते थे अपने संबंधों को मजबूत दूसरों से।
आजकल हम हवा में उड़ रहे हैं, मुंह से कम मोबाइल से ज़्यादा बात कर रहे हैं।
और सच तो यह है कि हमने इन्हें सहेजने, सवांरने की कोशिश भी छोड़ दी है।
क्योंकि हम संसाधन संपन्न हैं।
मजबूत होते अर्थ तंत्र ने कर दिया है संबंधों को कमज़ोर।
संबंधों की सामाजिकता अब संसाधनों की उपलब्धता और उनके अर्थतंत्र से तय होती है।
आज की इस अर्थवादी दुनिया में जीता हुआ आदमी सब कुछ छोड़कर बरतता, निभाता, जीता और सहेजता है एक विषम प्रकृति के अर्थ तंत्र को।
इसलिए ही सिकुड़ती जा रही है कभी संबंधों से बनी मनुष्य की सहज दुनिया।
इसलिए ही समाप्त होती जा रही है मनुष्य से मनुष्य के बीच संबंधों की सहजता, सरलता और आत्मीयता।
सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि संबंधों के न रहने पर मनुष्य की संवेदनात्मक मौत निश्चित है।