होती है तुम्हारे विमल जल प्रवाह से गं गं की ध्वनि निरंतर
इसलिए हे माता तुम गंगा हो।
स्वर्ग भू और पाताल तीनों लोकों को अपने पुण्य जल से पवित्र बनाने वाली त्रैलोक्यपावनी
जह्नु मुनि की कन्या होने के नाते तुम जाह्नवी हो।
संचरित होती हो तुम तीन पथों से इसलिए हो त्रिपथगामिनी।
अपने अबाध प्रवाह से तुम सिंचित करती हो निज पुत्रों के मानस को निज सारस्वत धारा से
करती हो निरंतर पतितों का उद्धार इसलिए हो पतितपावनी।
तुम्हारे अस्तित्व और ममत्व की शपथ ही है निज संतति का स्नेहसिक्त पोषण।
इसलिए ही तो नहीं रुकी तुम भागीरथ की निश्छल पुकार सुनकर पिता ब्रह्मा के कमंडल में भी।
श्री हरि विष्णु ने भी रोका तुम्हारे वेग को निज चरणों से,
परंतु पाकर उनके चरणों का श्री संयुत संस्पर्श; होकर और भी अधिक सौभाग्य संयुक्ता
अभिहित हुईं तुम विष्णुपदी की नवनाम संज्ञा से और चल पड़ीं अपने चिर प्रतीक्षित पथ पर।
अपार वेगवती होकर जब तुम प्रकट हुईं महात्मा भागीरथ के सम्मुख
तब करबद्ध हो अभ्यर्थना रत भगीरथ ने की प्रार्थना देवाधिदेव शिव से;
तुम्हारे अपरिमित वेग के संयमन की।
तब भक्त प्रिय परमेश्वर ने प्रसरित कीं निज अलकें और धारण कर तव वेग निज शीश पर करने लगे तांडव।
और बनकर आशुतोष शशांकशेखर शिव के सिर की मालती माला, तुम करने लगीं विहार उनके जटाजूट में।
और बन गईं अलकनंदा।
शिव के जटाजूट विहार से निजपुण्य का संवर्धन करने वाली पुण्यसुभगे!
तुम निकल पड़ी चंद्रमौलि की जटारूप अटवी से भी बनकर शिवालिका
और पहुंच गईं करते हुए भगीरथ का अनुगमन भूलोक पर।
होकर विख्यात भागीरथी के नाम से, तुमने दिया यशयुक्त फल महामना भगीरथ को उनकी अविचल तपस्या और मानवता के उद्धार के सत्संकल्प का।
माया की तटभूमि से लेकर तीर्थराज और विश्वनाथ की भवभूमि काशी को
तुमने ही तो किया है अनंत महिमावान और बनाया है सिद्धि सौभाग्य की प्रदाता।
हे भीष्म से शौर्यवान सुत की जननी! पूजित हो तुम भी पार्वती सदृश;
क्योंकि तुम भी तो हो उन्हीं जगतधात्री भगवती की भांति शैलजा हिमगिरिसुता पार्वती और नगेंद्रकन्या।
सृष्टि के कण-कण से तुम्हारा नेह स्नेह संबंध भी विचित्र और वरेण्य है।
तुम मुनि मन मानस विहारिणी हो और तुम ही हो अगणित धारा रूपों को धारण कर सागर संचारिणी।
हे राजा सगर के शापित पुत्रों का स्वजल के संस्पर्श मात्र से उद्धार करने वाली सद्गतिप्रदायिनी पापप्रक्षालिका भगवती!
तुम्हारे नाम के स्मरण मात्र से ही होता है कितनों का उद्धार।
तुम्हारी तरंगायमान जलराशि के दर्शन युक्त प्रणाम का फल है पुण्यलोकों की प्राप्ति और जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्ति।
अपनी तटभूमि को स्वजल की सुधा से सिंचित कर सौभाग्यमंडिता बनाने वाली देवी!
तुम ही तो हो भारत वसुंधरा के शस्य श्यामल स्वरूप की सतत संपोषिका।
हे कलुषनाशिनि जननी !
हम भारत पुत्रों के मानस को निज जल सम पूत पवित्र और निष्कलंक बनाकर
दे दो न वास्तविक गौरव हमें निज संतति होने का।
हे ईश शीश विराजिता अंब !
हमारी भारत भक्ति भी तुम्हारी पीयूष पोषित अमल विमल वारिधारा सम
अबाध अनाहत अकुंठ और अमृतमय रहे।