सीता की खोज का कार्य पूर्ण हुआ,अब उनकी मुक्ति के हित प्रयाण करने का समय था। राम का आशीष सिर धार वानर-भालु दल अपने यूथपतियों के नेतृत्व में लंका की दिशा में बढ़ते हुए महोदधि-तट तक आ पहुँचे।सागर तट पर राम ने उत्तर और दक्षिण की सम्मिलित आध्यात्मिक चेतना के प्रतीक के रूप में रामेश्वर शिव की प्रतिष्ठा की।
उधर अशोक उपवन को अपने अंक में धारण करने वाली लंका में शोक और भय का स्थायी वास हो गया।अपने नगर की दुरवस्था से चिंतित विभीषण ने इस विकट काल में भाई को सम्मति और परामर्श देना अपना नैतिक धर्म समझा। वे रावण के पास गए,सीता को रावण के कुल रूपी कमल-वन के विनाश हेतु आने वाली शीतकालिक रात्रि की भाँति बताकर उन्होने रावण से चतुर्थी के कलंक-प्रदायी चंद्रमा की तरह सीता का परित्याग करने और उन्हें सम्मान सहित श्रीराम को लौटा देने की बात कही। दुर्बुद्धि रावण ने विभीषण की एक न सुनी,बदले में उसने विभीषण का अपमान कर उन्हें लंका का तत्क्षण परित्याग करने को कहा। भाई द्वारा अपमानित और राज्य-निर्वासित हो विभीषण अपने विश्वासपात्र सचिवों सहित सागर पार आ गए ।सुग्रीव सहित अनेक वानर-वीरों की अनिच्छा के बाद भी अपनी अनन्य प्रीति संरक्षकता का परिचय देते हुए राघव ने विभीषण का यथोचित सम्मान किया समुद्र के जल से उनका अभिषेक करते हुए उन्होंने विभीषण को लंकाधिपति कहकर पुकारा।वास्तव में एक अपमानित भक्त और शरणागति की इच्छा रखने वाले के सम्मान की पुनर्प्रतिष्ठा तथा उसकी सुरक्षा का इससे बड़ा आश्वासन और क्या हो सकता थाऔर इसे राम से अधिक कौन जान सकता था?जो राज्य और संपदा रावण ने गौरीश को अपने शिरों को समर्पित कर देने वाली विकट एवं अनुपम साधना के फलस्वरूप प्राप्त किए थे वह विभीषण को राम ने अत्यंत संकोच सहित अपनी मित्रता के प्रेमोपहार के रूप में दे दी। वस्तुतः लंका के दुर्धर्ष समर की पृष्ठभूमि उसी समय पड़ गई जब राम ने विभीषण जैसे अनाथ को लंकानाथ बनाने का वचन दे दिया।सीता की मुक्ति के लिए बढ़ते रघुवर ने भक्ति और शरणागति के उदात्त भावों की रक्षा के हित अपमानित और हतगौरव विभीषण को सम्मानित तथा गौरवान्वित बनाने का गुरुतर उत्तरदायित्व भी अपने कन्धों पर ले लिया।
वानर-भालुओं का दल भावी समर के लिए उत्साहित और सज्य था,परंतु सामने अपने गंभीर गर्जन और अपार विस्तार से किसी के भी चित्त को उत्साहहीन बना देने वाले सागर को पार करना लंका तक पहुँचने के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा थी,सभी सोच-विचार कर रहे थे।विभीषण ने राम को उनके पूर्वजों द्वारा सागर पर किये गए उपकारों का स्मरण दिलाते हुए उनसे सागर से स्वयं मार्ग प्रशस्त करने का अनुरोध करने की सम्मति दी।
राम प्रीतिपरायण हैं,विभीषण के परामर्श को प्रीतिपूर्ण जान,शिव की कृपा से सुरभित चित्त वाले मर्यादा पुरुषोत्तम ने पुलकित हो सागर की ओर निहारा। उन्होंने समुद्र से मार्ग प्रदान करने की प्रार्थना की..राम जिनके अद्भुत व्यक्तित्व में शक्ति तथा शील और इन दोनों के समन्वय से उपजने वाले अभूतपूर्व सौंदर्य का विराट एवं अतुलनीय संगम है वे आजानबाहु हाथ जोड़ विनयावनत हो समुद्र से पंथ मांग रहे हैं और समुद्र मौन है अपनी हठधर्मिता छोड़ता ही नहीं…
जब तीन दिनों की अनवरत अभ्यर्थना के पश्चात भी समुद्र ने मार्ग नहीं दिया तब शीलसिंधु राम की उदारता क्रोध में परिवर्तित होने लगी।शठ को उसकी शठता का उचित दंड मिलना ही चाहिए…राम ने सागर के जल को अवशोषित करने वाले अपने प्रचंड अग्निबाण का धनुष पर संधान कर लिया…समुद्र त्राहि-त्राहि कर उठा,शरणागत होकर उसने स्वयं के ऊपर सेतु बाँधने का उपाय ख़ुद सुझाया।नील और नल जो दो भाई तथा वीर वानर-सेनापति भी थे; के नेतृत्व एवं मार्गदर्शन में सेतु-बंध का ऐतिहासिक कार्य आरम्भ हुआ। राम नामांकित शिलाओं के खंड समुद्र के चंचल वक्ष पर तैर उठे।मानव-सभ्यता का संभवतः प्रथम बार नाम की महत्ता से इतना अद्भुत और विराट परिचय हुआ। समुद्री मार्ग दिया राम की अपराजेय कीर्ति का अखंड अविरल जयघोष करती हुई वानर राज सुग्रीव की सेना अथाह सागर का थाह पाने में सफल हुई। अब लक्ष्य सम्मुख था परंतु मर्यादा पुरुषोत्तम ने बाधा समुद्र का बंधन किया था और वे तो स्वयं ही मर्यादा के सागर थे अतः उन्होंने लंका के सम्मुख पहुंच कर भी मर्यादा को धारण किए रखा। जो अपने शत्रु को भी आराम दे वही राम है। अपने नाम की संज्ञा के अनुरूप रघुवर ने विवेकशील मंत्रियों की सभा बुलाई।