यह समय का वर्त्तमान काल है…
इस समय जबकि झूठ,फ़रेब,धोखा और छल
बाँस के जंगलों की तरह बढ़ रहे हैं
और लग रही है साँच को आँच
तब क्या सत्य का रक्षक कोई नहीं…
अब जबकि चल रहा है न्याय पर अन्याय की विजय का दौर…
अबाधित और अप्रतिहत गति से,
पग-पग पर खंडित होते हैं धर्म
किसी कामातुर पुरुष की क्षण-क्षण पतनशीला लोकलज्जा के सदृश
और योग्यताओं के शव्यसाचियों ने
रख दिए हैं थककर अपने धनुष और तूणीर
रथ के पार्श्व भाग में,
तब क्या व्यवस्था द्वारा सृजित बेरोजगारी के व्यूह में लड़ते, दम तोड़ते
अभिमन्युओं के अस्तित्व की
रक्षा का संकल्प करने वाला कोई नहीं…
कई साल से पानी न मिले खेतों की मिट्टी ने
खो दिया है अपना जननी-रूप
और आँखों के सामने दिखने वाली सृष्टि का पालक विष्णु
आत्महत्या करने को विवश है…
तब कैसे हटेगी गरीबी?
क्योंकि लक्ष्मी तो अपने लिए सुयोग्य वर की तलाश निस्पृहता के मानकों पर करती हैं न
चलीं थीं वे वरण करने अपने प्रियतम का…मिला भी था उन्हें वह…
पर यह देखकर कि सौभाग्य से पहले ही वैधव्य का दुःख हो जाएगा…
लौट गईं वे…
और दे दिया मतिभ्रम और तद्जन्य निर्धनता का अभिशाप…
इस अभिशाप की वाहक है देश की व्यवस्था…
इसी अभिशाप की छाया में पल रहीं हैं इस देश की अधिकाधिक संतानें
क्या जग-पालक के सम्मान को पुनर्प्रतिष्ठित कर
निर्धनता के अभिशाप से मुक्ति दिलाने वाला कोई नहीं…
अब ज्ञान के चिर पिपासु नचिकेता पूछते फिरते हैं
सत्ताधारियों के घर का पता
और लेने लगे हैं राजनीतिक-चर्चाओं में रूचि…
विद्या के आलय बन गए हैं राजनीतिक दाँव-घात के प्रशिक्षण-केंद्र…
इस समय आप्त-वचन कंठ से नहीं संचार-माध्यमों से फूटते हैं…
अतः सरस्वती ने स्वयं को निरुद्देश्य समझकर,
ले लिया है ब्रह्मलोक का रास्ता
नित्यप्रति होती हत्याओं ने वास्तविक शिव को शव बना दिया है…
क्योंकि अब तो महाकाल सड़कों,गलियों और चौराहों पर बिन बुलाए विचर रहे हैं…
इस समय शक्ति की अधिष्ठात्री जगत्जननी
अपने वरद पुत्रों की असीम लज्जा-हरण शक्ति देखकर विचलित है…
अब परमपिताओं के दर्शन निर्लिप्तता से नहीं संलिप्तता से संभव हैं…
योग-साधन की तरह पवित्र हैं इस समय लूट,हत्या और बलात्कार…
अगर पूछा जाये कि इस समय सबसे अभागा कौन है…
कौन है सबसे अशक्त,
कौन है सबसे विवश,
कौन है मरणासन्न ?……
तो ऐसे अनगिनत प्रश्नों का एक ही उत्तर है-देश
क्या इसे बचाने वाला कोई नहीं?