हिंदी के प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की पंक्तियाँ हैं:
बीज क्रांति के बोता हूँ मैं, अक्षर दाने हैं
घर बाहर जन-समाज को नए सिरे से रच देने की रूचि देता हूँ।
जब कभी इन पक्तियों को पढता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि वास्तव में इस मरणधर्मा संसार में यदि जीवन के प्रति उन्मुख होना हो जीवन को सहेजना हो तो संबल किसका लिया जाए;सानिद्ध्य किसका प्राप्त किया जाए। जिससे पूछो, जिसके पास जाओ वही रीता दिखाई देता है। ऐसे संकट में रचना आस जगाती है, अवसर की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता तलाशते किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य को सर्जना के नवल पथ पर अग्रसर करती है और जीवन के विधि-निषेधों से अलग हटकर संभावना की सहज उर्वरा भाव-भूमि का सृजन करती है जिसके संस्पर्श से मानव-मन का कल्पना-प्रसूत बीज वस्तुगत सत्य के नवांकुर के रूप में फूट पड़ता है। इस भाव भूमि पर खड़ा होता हूँ तो भाषा की धरती की कोख अत्यंत उर्वरा प्रतीत होती है। लगता है कि सभ्यता के सर्वाधिक आद्य और सर्वथा मौलिक विमर्श वेदों की उक्तियाँ काल के अनगिनत कलुषों से अप्रभावित रहते हुए आज भी पूर्ण प्रभामय निष्कलंक चंद्र की भांति क्यों भासमान हो रही हैं? रचना में संभावना न होती तो क्या यह संभव होता? उत्तर स्पष्ट है-नहीं…कभी नहीं…किसी रूप में नहीं। रचना की संभावनाशीलता के कारण ही मनुष्य के अनभ्यस्त और अकुशल हाथों से गढ़े अनगढ़ शिलाखंडों ने सुंदर शिल्पकृतियों का रूप लिया है;आदिम पहिए ने विश्व-सभ्यता को संचरण और परिवहन की अबाध गति दी है वाणी को संचार की नव वीथिकाओं में विचरण की सदानीरा सरिता सदृश उन्मुक्तता प्रदान की है प्रकृति को नवाचार और नवोन्मेष की सम्पूर्णता के एकनिष्ठ कर्त्ताभाव से विभूषित किया है तो जीवन की आस में साँस लेते मनुष्य को रचना का सहारा ही लेना पड़ेगा क्योंकि अंततः हम सभी भी तो इस नश्वर संसार में प्रत्येक रचना की प्रेरणा के सूत्रधार इतिहास-विधाता ईश्वर की संभावनाशील रचनाएँ ही हैं।
अक्षयतृतीया
Bahut acha, best wishes