होली आई है… आए हैं, ब्रज के रसिया राधा-कान्हा।
झंकृत वृंदावन नूपुर से, मुखरित गीतों से बरसाना।
होली की इस मृदुता में, कैसे भूलें वे व्रजवनिता;
रस स्नेह शून्य जीवन को जिनने, निर्जीव सदा ही अनुमाना।
यह होली केवल पर्व नहीं, इसमें ऐसी मादकता है;
जो निस्पृह में लालच भर दे, जड़ में भरती चंचलता है।
क्या ब्रह्म और क्या जीव सभी, इसके आकर्षण बंधते हैं;
मेरी-तेरी क्या बात सखी ,जब राधा-कृष्ण न बचते हैं।
यह एक महोत्सव ऐसा है, जब ब्रह्म विवशरस होते हैं।
इसमें कोई है भेद नहीं, भगवान भक्तमय होते हैं।
प्रेषित है राधारंग-पत्र,ओ ब्रजवल्लभ! तुम आ जाओ।
छेड़ो मुरली की मधुरतान, अपना मधुराग सुना जाओ।
आओ वीथी में मनमोहन, रंग दो तन अंतर्मन, जीवन
हे भाव और रस के भूखे चटकीला फाग सुना जाओ।
पाकर यह संदेश रसीला, विह्वल हैं वल्लभ-वृंदावनl
होली के आमोद-शोध में, रत है ब्रज का जन गण मन।
आ पहुंचे हैं कृष्ण वीथि में, तत्क्षण ही बरसाने की।
इच्छा है गोपी-वल्लभ को, राधामय हो जाने की।
देते हैं संदेश प्रेम का, रचते रस की नव परिभाषा।
सबके मन को देते हैं, एक राग भरी नूतन आशा।
डाल दिया है रंग कृष्ण ने,राधा हुईं विभोर,
कृष्णप्रिया के प्रेमरंग का, आज न ओर न छोर।
पीयूष/28.03.21