प्रेम का रूपाकार

Kavita

 

आखिर वह समय भी आ गया

जब एक पुरुष ने जन्म दिया है

स्वयं के भीतर से…तन से समान किंतु मन से भिन्न पुरुष को…

वह पिता बन गया है…

जब पत्नी संतान के जन्म का सम्भावित सुख अपने अंतर में धारण कर

प्रविष्ट हुई थी प्रसूति-गृह में

तभी से उसकी आन्तरिकता में भी परिवर्तन होने लगे थे…

उसे भी थी एक सुखद चिंता युक्त प्रतीक्षा…

किसी के आने की,किसी को समवेत और नवीन रूप में पाने की…

अंततः जब आनंद-मिश्रित पीड़ा के साथ पत्नी ने संतान को जन्म दिया

तब उसने अनुभव किया कि उस एक काया में वह त्रिगुणित होकर समा गया है…

उसने देखा कि उस नवजात में वह,उसकी पत्नी और दोनों की समवेत नवीनता

तीनों आकार पा गए हैं…

वास्तव में संतानें माता-पिता के प्रेम का नवीन रूपाकार ही तो हैं…

उसी क्षण उसने जन्म दिया स्वयं के भीतर से…

पहले से कहीं अधिक उदार,क्षमाशील,कृतज्ञ,कर्तव्यनिष्ठ और वत्सल पुरुष को…

इस नए पुरुष की संज्ञा ‘पिता’ थी…

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