हे महोदधि…

Kavita

हे महोदधि! कौन हो तुम?

धरा के सहचर…उसके अस्तित्व का पर्याय…या और कुछ…

तुम्हें देखा तो अनुभव किया कि…

तुम अनंत जीवन तो हो ही अनंत वैभव भी हो तुम…

क्योंकि तुम उस सिंधुसुता के जनक हो

जिससे परिणय की प्रेमाकांक्षा के कारण ही जगन्नाथ ने निखिल सृष्टि के परिपालन की अनंत अभिलाषा  प्रदर्शित की है…

आज तुमने बताया कि

प्रकृति भी विविधरूपा और अनेकवर्णा होकर तुम्हारे अंतस के पुरुष  का साक्षात्कार करती है…

तुम्हारे तट पर पहुँचा तो देखा कि

भगवान अंशुमाली की अस्ताचलगामी ताम्र रश्मियाँ

तुम्हारे अस्तित्व की विराटता का चुम्बन कर अपने सहज सौभाग्य को द्विगुणित कर रही हैं…

दिगंगनाओं के समीर संचलित आँचल  के साथ उड़ते हुए मेघ

तुम्हारे विशाल वक्ष पर बालक्रीड़ा करने को आतुर हैं…

तभी मेघमय आकाश से उतरकर प्रकृति की दो अनन्य सौंदर्यमयी ललनाओं

संध्या और वर्षा ने तुम्हारे मुख पर अपने आँचल की प्रेममयी छाया डाल दी…

सोचता हूँ…दो सुंदरियों का सम्मिलित प्रेमभाजन बनने का सौभाग्य तुम्हारे अतिरिक्त और किसे मिल सका है?

आज तुम्हारा तट साक्षी बना मेघ और उसकी विद्युत्प्रिया के  पुनर्मिलन का…

जिसके चिर अभिलाषी थे महाकवि कालिदास…

हे अर्णव,हे अम्बुधि,हे रत्नाकर …

बताओ न तुम अपने अचल, अखंड, अजस्र,अनाविल आशीष की अशेष सजलता मुझे कब दे रहे हो…

(शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला,11 मई 2018 गोपालपुर समुद्रतट पर भ्रमण के समय लिखी कविता…)

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