सोचता हूँ…सफलता क्या है?
सयानेपन का सतत अभिनय
या दुख में भी सुखी रहने के हुनर की खोज
या कि लड़ते ही जाना लगातार स्वयं के ही अस्तित्व से
या फिर डाल देना दूसरों को भी उन्हीं बाधा-विषमताओं के भँवर में;
जिनमें हम ख़ुद फंसे थे या फंसे हैं…या जो हमारी थीं…
नीचा दिखाना दूसरों को, या दूर जाना दूसरों से
ठग कर मुसकुराना दूसरों को या
चाहकर भी कह न पाना कुछ किसी से…
देखता हूँ…
समय के इस दौर में निःशब्दता बढ़ती ही जाती है
ज़िंदगी का लंबा सफ़र लगातार हो रहा है कमतर
लेकिन हमारे पैरों की गति में बढ़ोत्तरी को दर्शाने वाला काँटा
बाढ़ के पानी की तरह खतरे के निशान से ऊपर की स्थिति दर्शा रहा है…
अगर…
जानकर सब कुछ,न कहना कुछ
देखकर सब कुछ,अनदेखा कर देना सभी कुछ…
या कि यदि उदासीन होकर सबके प्रति,सोचना केवल अपने को
या कहें कि सफलता है…
मानवता का पूर्ण परित्याग…
या दिखावे के महापुरुषत्व की प्राप्ति का सतत प्रयत्न…आखिर क्या है सफलता?
हृदय की अंतश्चेतना से उठता है एक स्वर…
ये सब तो सफलता के साधन हैं…केवल कथित,अपनाए हुए…
या निज की संकल्पना से पोषित और उसकी ही परिधि में मान्य…
ये फल नहीं…
पूछता हूँ …तब क्या कोई सफल नहीं है ?
किसी को भी नहीं मिलती सफलता!
नहीं रे,कोई नहीं होता सफल,किसी को भी नहीं मिलती सफलता
क्योंकि वह तो साधन जुटाता रहता है नित-प्रति
केवल थककर या होकर आत्मतुष्ट
या देखकर अपने साधनों के संग्रहण को
मान लेता है कि
वह सफल है…
मैंने कहा, मन मेरे…तब क्यों कहा जाता है कि
फल मिलता है…कर्म करने से…
कहा मन ने…कि कर्म कहाँ करता है मनुष्य…
कर्म कर पाने का अवकाश ही मिलता उसको कहाँ?
वह तो साधन-संग्रहण पर मुग्ध होता है जब तक
तब तक तो आयु क्षीण होकर समाप्त हो जाती है…
कम से कम साधन जुटाकर कर्म में प्रवृत्त होने से मिलता है फल
जब जीवन बढ्ने लगता है साधन-शून्यता की ओर …
तब कहीं जाकर मिलता है फल…और उसके चरम पर मिलती है सफलता…
केवल जन्म और मृत्यु ही सफलता हैं….क्योंकि वे ही साधनहीनता का चरम हैं…
माना मैंने कि उचित ही है यह…
तभी तो महात्मा कबीर ने कहा…“कबिरा जब तू जनमिया, जग हांसे तू रोय
ऐसी करनी करि चलो,आप हंसो जग रोय…”
तभी तो सभ्यता के महामानव कृष्ण के वचन थे…“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”