बचपन:सुनते ही कानों से शब्द यह;
जी उठतीं, अनेक मधुस्मृतियाँ मानस-पटल पर।
बनते हैं विविध चित्र निर्दोष शैशव के
हरे होते निर्झर अनेक उल्लास के,
जगती है सहज छवि, निष्कलंक जीवन की;
फूलते हैं हास-फूल भोले मधुमास के।
सोचते हैं सब, और चाहते भी हैं सदा,
असंभव भी जानकर, जीना और पाना उसे;
बार-बार परिधि में स्वगात के।
बचपन से जुड़े अनेक चित्र,
यों तो हैं सभी के पास;
पर एक छवि है सार्वभौम,
सबसे भिन्न, जीवन से अविछिन्न;
विधि रूप,विष्णु रूप, शिव रूप माता की।
उपजाती जीवन जो, निज पवित्र कोख से;
करती जो सिंचन उसका, ममता के स्रोत से।
पालती है, निज पय पिला-पिला विष्णु सदृशा
करती है रक्षण, भवेश सम संतति का;
देह,दैव,भौतिकता रूपी त्रिदोष से।
जननी और धात्री बन, ब्रह्म सदृश हो माँ तुम;
पालन कर हम सबका, तुम्हीं बनीं विष्णु रूप।
मृत्यु से अभयता और अमरता के पथ पर चला,
संतति के जीवन हित, आशुतोष,मृत्युंजय,शिव रूप हो माँ।
तुम्हीं हो सरस्वती,भद्रकाली,महालक्ष्मी,
सूर्य का हो परम तेज, चंद्र की शीतलता;
वायु का हो प्राण तुम, धरा की पवित्रता।
भोजन दे पोषण करती, साक्षात् अन्नपूर्णा यदि हो तुम;
निर्बल नवजात को शक्ति-वर देती, शिवा भी हो तुम्हीं ही।
दीप जला तुलसी के चौरे पर, संचारिका वैभव की;
संतति हित मूर्तिमान महालक्ष्मी, जीवन धन तुम्हीं हो माँ।
आज वर चाहता हूँ, जननी मैं तुमसे यह;
दो हमें सिद्धि-दान, अविचल कर्मठता का।
दो हमें, बल और शक्ति वह निज प्रसूत;
कर सकें जिससे, उपकार हम मनुजता का।
देशहित औ मानवता, सर्वोपरि हों जीवन में;
भर दो भाव माँ, हममें समरसता का।
बनें हम उदारचित्त, सबके लिए;
जीवन में वास हो, सौम्यता सहजता का।
यही एक प्रार्थना, जो सुन लो जननी तुम;
नश्वर और निष्फल मेरा यह जीवन भी,
बन उठे पर्याय एक, सार्थक सफलता का।
08/07/2020
बहुत मनोहारी कविता। यूँ कहें कि मर्मस्पर्शी भाव से लबालब
रचना है ।
अभिनंदन !
धन्यवाद सर
मा🥰❤️
Very nice
माँ संसार का सबसे प्यारा शब्द है | और यह कविता बहुत मनमोहक है