मित्रों, कल 31 जुलाई है, प्रेमचंद जयंती। भारत के विद्यालयों में पढ़ने वाला कोई भी ऐसा विद्यार्थी नहीं होगा जिसने प्रेमचंद को किसी भी रूप में पढ़ा या सुना न हो। सभी प्रेमचंद के नाम से पूर्व परिचित हैं। प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर उनका और उनके साहित्यिक अवदान का स्मरण हो आना अत्यंत स्वाभाविक है। आज जब हम प्रेमचंद की बात करते हैं तब ऐसे समय में मुझे उर्दू के महाकवि मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर याद आता है; ग़ालिब कहते हैं-
बलाए जां है गालिब उसकी हर एक बात, इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या?
मेरा मानना है कि प्रेमचंद इन्हीं तीन कसौटियों यानि अपनी इबारत,इशारत और अदा के लिए ही हिंदी साहित्य में जाने जाते हैं। वास्तव में प्रेमचंद हिंदी के क्षेत्र में जिस दौर में आए वह भारत की आज़ादी की लड़ाई का दौर था। हिंदी के क्षेत्र में भी महावीर प्रसाद द्विवेदी सदृश् विद्वान व्याकरणिक सुधार और तमाम तरह की दूसरी संभावनाओं की तलाश में जुटे थे। ऐसे समय में उर्दू से हिंदी में आने वाला एक लेखक हिंदी की चाल-ढाल और उसके रंग-रूप को कैसे बदल देता है?प्रेमचंद और उनका साहित्य, इसकी जीती-जागती मिसाल है। वास्तव में विद्वानों की भाषा जिस नवीनता की खोज हमेशा से साहित्य में करती रही है, प्रेमचंद वैसा कुछ नया लेकर साहित्य में उपस्थित नहीं हुए लेकिन प्रेमचंद का एकमात्र और सबसे बड़ा योगदान साहित्य को यह है कि वे उस वाणी,उस मनोभाव और उस संवेदना को लेकर उपस्थित हुए जिसे उस समय तक साहित्य में बहुधा अग्राह्य समझा जाता रहा था। जिस जनता का यह देश है, जिसके समवेत श्रम और साझी संवेदना से उसका पूरा भौतिक ताना-बाना तथा मानस निर्मित होता है; उस जनता को हमेशा दरकिनार किया जाना इस देश की स्वाभाविक नियति रही है।अंग्रेजों के समय में यह काम अंग्रेजों ने किया; आज के परिदृश्य में हम देखें तो कुछ ऐसा ही काम हमारी सरकारें भी कर रही हैं।बहुत से लोग उत्साह के अतिरेक में प्रेमचंद को व्यवस्था विरोधी कह जाते हैं; प्रेमचंद व्यवस्था विरोधी नहीं थे लेकिन प्रेमचंद ऐसी व्यवस्था के पोषक कदापि नहीं थे जिसकी शक्ति का स्रोत, वर्ग विशेष की श्रेष्ठता एवम् उसके ही संरक्षण में स्थापित दमन तथा शोषण का अभेद्य चक्रव्यूह हो। वे ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें व्यवस्था के वास्तविक भागीदारों की,वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। इस विचार को यदि ध्यान में रखें तो किसी भी देश में उसका श्रमशील जनमानस ही व्यवस्था का वास्तविक भागीदार और उसका वास्तविक निर्माता होता है। प्रेमचंद इसी दबे कुचले राष्ट्र निर्माता और इसी व्यवस्था के वास्तविक भागीदार की लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं।यही कारण है कि जिस प्रेमचंद को आदर्शवादी कह दिया जाता है। मुझे लगता है यदि आप ध्यान से प्रेमचंद के साहित्य और उसके उपरांत उनके साहित्य की समीक्षा के रूप में लिखे गए कुछ अच्छे साहित्य को ध्यान से पढ़ें तो प्रेमचंद हमें आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी नज़र आएंगे; लेकिन चूंकि उस समय पूरे देश का यथार्थ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के नीचे इस प्रकार दबा-कुचला था कि अपने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उन्हें छद्म नाम और प्रचलित आदर्शों का सहारा लेना पड़ा। प्रेमचंद कहीं आदर्शवादी नहीं हैं; वह यह बताना चाहते हैं कि यथार्थ की तरफ बढ़ने का रास्ता क्या है? इसलिए अगर आप देखें तो उनकी किसी भी कहानी अथवा उपन्यास में, अपनी बात भले ही वह किसी अमीर पात्र से शुरू करते हों लेकिन जब भी कहानी का अंत होता है तो उनका सबसे दबा, कुचला, शोषित और विद्रूप दिखने वाला पात्र ही नायक बनकर उभरता है।मैं मानता हूं कि नायकत्व केवल इस बात में नहीं है कि किसी कथा या उपन्यास को पढ़ते हुए हम अंत में जिसे बड़ा काम करते देखें, जिसे बाधाओं का शमन करते पाएँ, जिसे स्थितियों को बदलते पाएँ; वही नायक बन जाए। मेरा मानना है कि किसी कृति या संपूर्ण रचना को पढ़ने के बाद हमारी संवेदना जिसके साथ सर्वाधिक जाए, जिसके पक्ष में सर्वाधिक जाए, जो हमारी संवेदना के साथ एक रूप होकर हमारे मस्तिष्क में बस जाए वही नायक है; और इस दृष्टि से अगर आप देखेंगे तो प्रेमचंद अपने उपन्यासों और कहानियों में बिल्कुल लीक से हटकर सोचने और काम करने वाले स्वतंत्रता प्रेमी तथा स्वाभिमानी कथा नायकों की सृष्टि करते चलते हैं क्योंकि अंततः उन्हीं के हाथों प्रेमचंद को अपने इस आज़ाद देश को सौंपना भी था। उनके मानव तो मानव हीरा और मोती जैसे पशु पात्र भी स्वातंत्र्य प्रेमी तथा स्वाभिमानी हैं। वैसे भी यह सोचा भी कैसे जा सकता है कि जिसने शुरू से लेकर अंत तक अपने जीवन की लड़ाई साम्राज्यवाद से ही लड़ी हो, वह किसी भी शोषक और साम्राज्यवादी विचारधारा अथवा सत्ता के आगे सरलता से अपने घुटने टेक देगा। क्या प्रेमचंद को इस बात की टीस नहीं रही होगी कि सब कुछ ठीक होते हुए भी उन्हें बार-बार अपनी लीक से हटाने का प्रयास किया गया। जीवन में, पेशे में और साहित्य में भी।वास्तव में आज प्रेमचंद का स्मरण करते हुए मुझे उनके उत्तरवर्ती किंतु हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, कवि केदार की एक पंक्ति याद आती है-
देखे दाँव पैंतरे झेले, नरम जीभ से हमने दिग्गज पर्वत ठेले।।
बिल्कुल निरपेक्ष ढंग से देखा जाए तो केदार जी की ये पंक्तियां प्रेमचंद के संपूर्ण जीवन और साहित्य पर खरी उतरती हैं। प्रेमचंद अपने निजी जीवन में और साहित्यिक जीवन में भी यही काम करते रहे। पहले अंग्रेजी सरकार के दांव-पेंच, उसके बाद उर्दू से हिंदी में आने की लड़ाई और अंततः हिंदी में आकर एक ऐसी विधा को सुसंस्कृत रूप देना; जिसमें उससेे पहले जासूसी, ऐयारी तिलिस्म और दरबार लिखे जाते थे।हिंदी का जो कथा और उपन्यास साहित्य घुटनों के बल रेंग रहा था, उसे प्रेमचंद ने उंगली पकड़कर चलना और दौड़ना सिखाया। वास्तव में प्रेमचंद को हिंदी उपन्यास की आत्मनिर्भरता की सबसे महत्वपूर्ण घोषणा और तत्कालीन साहित्य में एक नए शिल्प विधान के निर्माता में रूप में देखा जाना चाहिए।किसी भी युगचेता साहित्यकार का मूल्यांकन हम उसकी कृतियों के महत्व के आधार पर करते हैं। इस दृष्टि से महाप्राण निराला और प्रेमचंद एक ही स्थिति में, एक ही वर्ग में खड़े दिखाई देते हैं। अपने जीवन काल में जिन झंझावातों,आक्रमणों और षड्यंत्रों का सामना प्रेमचंद को करना पड़ा वैसे ही कुछ निराला जी को भी। हिंदी आलोचना और समीक्षा के क्षेत्र में जितना बड़ा काम डॉ. रामविलास शर्मा का है उतना बड़ा काम शायद किसी दूसरे साहित्यिक व्यक्ति का मुझे नहीं दिखता। रामविलास जी ने निराला पर बहुत कुछ लिखा और उन्होंने प्रेमचंद पर भी बड़े सलीके से बात की। मुझे लगता है प्रेमचंद को जानना चाहने वालों के लिए रामविलास जी को पढ़ना बहुत आवश्यक है।आवश्यक इसलिए भी कि जब तक आप रामविलास जी को नहीं पढ़ते, तब तक आप वास्तविक स्थिति में प्रेमचंद और उनके रचना संसार के रूबरू नहीं हो पाते। अपनी प्रसिद्ध कृति प्रेमचंद और उनका युग में रामविलास जी ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है कि घर में तरकारी काटने वाली स्त्रियों से लेकर,लाठी को तेल पिलाने वाले दरवानों तक द्वारा प्रेमचंद की साहित्यिक कृतियों के सफे पलटे जाने से उनकी जो हालत है; वही प्रेमचंद की लोकप्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण है।सेवासदन से लेकर गोदान तक जो प्रेमचंद के औपन्यासिक रचना कर्म का व्यवस्थित परिदृश्य है उसमें सेवासदन की नायिका सुमन अपने जीवन के तमाम प्रतिरोधों को सहती हुई अंत में उन्हीं व्यक्तियों, संस्थाओं या उसी समाज को अपने सम्मुख निःशस्त्र और नतमस्तक होने के लिए मजबूर करती है; जो उसे लांछित करते हुए इस जिंदगी की तरफ मोड़ देते हैं। एक जगह वह कहती है कि यह समाज है जो अंधेरे में जूठा खाने तक को तैयार है लेकिन उजाले में उसे निमंत्रण भी स्वीकार नहीं।वास्तव में यह बात प्रेमचंद जैसा साहित्यकार ही कह सकता था। इसी तरह निर्मला में प्रेमचंद का मुंशी तोताराम के प्रति यह कहना कि अपने दूसरे विवाह के लिए मुंशी जी सींग कटाकर बछड़ों में शामिल हो गए; एक ऐसी उक्ति है जिसमें हम पूरे समाज का खाका देख सकते हैं। कहना न होगा कि सेवासदन में अनमेल विवाह की समस्या से जूझती सुमन और निर्मला में अनमेल विवाह की त्रासदी से जूझती निर्मला दोनों एक ही भावभूमि पर खड़े हैं, एक जगह उसका दुहाजू पति है दूसरी जगह ऐसा पति है जो सर्वसमर्थ तो है लेकिन निर्मला की ही उम्र के एक बेटे मंशाराम का पिता भी है।सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होना जहां तोताराम सायास करते हैं, वही गजाधर की नियति है सुमन के साथ बंध जाना। दोनों ही स्थितियों में प्रेमचंद यह सुनिश्चित करते हैं कि अनमेल विवाह हमारे समाज की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।वह तब भी था और आज भी है। उस समय सुमन और निर्मला जैसे वास्तविक कथा चरित्र अनमेल विवाह की समस्याओं का शिकार हो रहे थे और आज आजादी के 70 साल बाद के हिंदुस्तान में भी यह स्थिति जस की तस बनी हुई है। येन केन प्रकारेण स्त्री अभी भी उसी खांचे और खाने में है। जरा एक बार यदि उसका पूर्व व्यवस्थित जीवन नष्ट हो जाए तो दूसरी बार उसको, उसके जीवन को संवारने और दिशा देने वाले लोग फिर उसे उन्हीं खानों में ले जाकर रखते हैं; जिन खानों में प्रेमचंद निर्मला और सुमन को रखकर तत्कालीन समाज की स्थिति को देख रहे थेे।लेकिन प्रेमचंद की उद्घोषणा यह है कि अब ऐसा नहीं होगा। तभी तो सुमन अंत में समाज के उन ठेकेदारों को माकूल जवाब दे पाती है और तभी तो निर्मला अपने चरित्र की और अपने अस्तित्व की वास्तविक स्थिति की ओर बढ़ पाती है।गबन की जालपा और रमानाथ में इस बात का द्वंद है कि जालपा की इच्छाओं को पूरा करने के लिए रमानाथ सक्षम नहीं हो पाते और वह गबन करते हैं।गबन का इल्जाम रमानाथ पर लगता है तो प्रेमचंद का यह स्त्री पात्र अंत में इस बात के लिए व्यवस्थित हो जाता है कि सुविधाओं की इच्छा नहीं, इच्छा वास्तव में उस पति की है, जिसे मेरे कारण कष्ट भोगना पड़ा। इन दोनों में प्रेम का पुनर्प्रकाशन कराकर प्रेमचंद जहां समाज की वास्तविक सच्चाई को दिखाते हैं,वहीं परिवार जैसी संस्था को टूटने से भी बचाते हैं; और दांपत्य जैसे संबंध की रक्षा भी करते हैं।रंगभूमि जैसी अपनी महाकाव्यात्मक औेपन्यासिक कृति में प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास के माध्यम से गांधी को वाणी देते हैं। गांधी के आंदोलन को गति और सार्थकता देते हैं और यह घोषित कर जाते हैं कि भारतीय समाज का सबसे विपन्न,अदना और कमजोर आदमी भी उस साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने को उठ खड़ा हुआ है; जिसकी जड़ें लंदन से लेकर दिल्ली तक बहुत गहरी बैठी हुई हैं। सूरदास की झोपड़ी जलने पर जब एक छोटा-सा बालक मिठुआ उससे पूछता है कि दादा झोपड़ी जल गई अब कहां रहेंगे?तो सूरदास कहता है-दूसरी बनाएंगे, मिठुआ फिर कहता है और कोई उसे भी जला दे, तो सूरदास कहता है तो फिर दूसरी बनाएंगे। अपनी बाल सुलभ जिज्ञासा के अनुरूप मिठुआ फिर उससे कहता है कि और कोई उसे भी जला दे तो तब सूरदास कहता है फिर बनाएंगे, फिर मिठुआ का कहना है कि कोई उसे भी जला दे तो सूरदास कहता है कि बाार-बार बनाएंगे, हजार बार बनाएंगे। वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में सूरदास की यह बात गांधी की वाणी सिद्ध होती है। गांधी का भी एक ही लक्ष्य था चाहे जितना भी जुल्म अंग्रेजी सरकार कर ले, चाहे जितना भी वह हमें सता ले लेकिन हम इस देश की आजादी को किसी भी कीमत पर पाकर ही रहेंगे। और मुझे यह कहते हुए बहुत प्रासंगिक लगता है कि हिंदुस्तान दुनिया का एकमात्र लोकतंत्र है, जिसने अपनी आजादी अपना खून बहा कर पाई है। वास्तव में गांधी के आदर्श और प्रेमचंद की इस वाणी में जो साम्य दिखता है; उसमें स्वतंत्रता आंदोलन और नए भारत के निर्माण के सूत्र खोजे जा सकते हैं। बच्चों के खेल से लेकर, गांव की पंचायत तक,खेतों में अपना हाड़ तोड़ते और श्रम करते किसान-मजदूर से लेकर, राजनीति और संविधान के निर्माताओं के जीवन तक पसरे अपने विविधता पूर्ण कथा और उपन्यास साहित्य में प्रेमचंद ऐसे समर्थ पात्रों को सृजित करते नजर आते हैं, जो शुरुआत तो बेशक मुफलिसी में करते हों लेकिन अंत एक वैचारिक समृद्धि के स्तर पर ही करते हैं। जहां से नए भारत के निर्माण का नया गवाक्ष खुलता नजर आता है।यहां रोशनी नजर आती है कि अब भारत अवश्य आजाद होगा, अब भारत अपनी राह पर जरूर चलेगा। प्रेमचंद का जो मन अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को रचता है,वही मन हामिद और अमीना को भी रचता है।वही मन सद्गति के दुखी चमार की व्यथा भी बताता है। वही बूढ़ी काकी के बुढ़ापे का दुख बयां करता है तो वह ही अलग्योझा में केदार और मुलिया के मन को भी पढ़ता है।वह एक स्त्री को केवल पत्नी नहीं, अपितु समान भाव भूमि पर एक बड़े घर की बेटी भी कहता है। उसे स्वीकार है कि कर्ज़ के बोझ में दबा हुआ किसान, किसानी बेशक छोड़ दे, मजदूरी करने लगे लेकिन मरे नहीं क्योंकि वह भारत की श्रमशील जनता का प्रतिनिधि है। वह ठाकुर के कुएं को देखता है तो सोचता है कि भगवान के दिए जल जैसे प्राकृतिक उपहार पर किसी अकेले का कब्ज़ा कैसे हो सकता है? ठीक ऐसे ही तो दांडी यात्रा के नायक गांधी जी भी सोच रहे थे। गुल्ली डंडा और और दूध का दाम जैसी कहानियों में वह वर्गवैष्म्य को पाटना चाहता है। ऊपर से देखने में तो ऐसा लग सकता है ये कहानियां वर्ग-विषमता पर उतनी आधारित नहीं हैं लेकिन अगर इनकी अंतरधारा की सही पहचान करें तो पता चलता है कि प्रेमचंद को यह दीख रहा था कि भारत की आज़ादी के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारी आपसी विषमता,भेदभाव और हमारा आपस में असंगठित होना है।
इसलिए अपने साहित्य में अनेक जगहों पर वे इस बात की तस्दीक करते नज़र आते हैं कि सितम भी सहना दुआ भी देना, वह बेबसी का गया जमाना। उनके पात्र सितम और जुल्म सहते हैं, बेबस हैं लेकिन जिस स्फूर्ति से अंततः वे उठ खड़े होते हैं; शोषण आधारित व्यवस्था के विरोध में, साम्राज्यवादी शक्तियों के विरोध में,सामाजिक रूढ़ियों और प्रताड़नाओं के विरोध में; उस दृष्टि से यह कहना पड़ेगा कि हिंदी के सर्वाधिक समर्थ पात्रों की सृष्टि,सर्वाधिक समाजोन्मुख और समाज को नई दिशा तथा गति देने का निरंतर प्रयत्न करते रहने वाले पात्रों की सृष्टि प्रेमचंद ने पहली बार हिंदी कथा साहित्य में की। वे स्त्री को जहां आत्मनिर्भर और आत्म गौरव से युक्त बनाने की वकालत करते हैं, वहीं एक अंधे भिखारी को साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन के नायक के रूप में विकसित करते हैं। साथ ही साथ सूदखोरी, ज़मींदारी और कर्ज़ के बोझ से दबे हुए किसान को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश करते भी दिखाई देते हैं। उनका उपन्यास गोदान तत्कालीन भारत केेेे किसान की त्रासद और संघर्षशील स्थिति का महाकाव्यात्मक दस्तावेज कहा जाए तो कुुछ गलत न होगा।
मित्रों!यह प्रेमचंद ही हैं जो भारत की विपन्न,निरीह,भोली-भाली और सामान्य किंतु आत्मगौरव संपन्न जनता को, लोकतांत्रिक आज़ादी से वर्षों पहले; अपने साहित्य में आजादी देते हैं। और उसे,एक ऐसे अनभिषिक्त साम्राज्य का अधिकारी बनाते हैं; जिसका सपना आजादी की राजनैतिक लड़ाई में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था। वास्तव में केवल सीधे-सीधे राजनीति में आकर या शस्त्र उठाकर लड़ना ही लड़ना नहीं है,लड़ाई के बहुत से मोर्चे होते हैं और भाषा का मोर्चा, ऐसा ही मोर्चा है। जहां लड़ाई सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन उस सीधे तौर की लड़ाई से ज्यादा गंभीर ढंग से लड़ी जाती है। इस नज़रिए से देखें तो प्रेमचंद बेमिसाल हैं और उनकी प्रत्येक कृति अविस्मरणीय और कालजयी।