- जब वह संयुक्त हुआ मां की प्राणधारा से,
तब उसने जीवनी शक्ति पाई।
पीड़ा मां को हुई,तब उसने जीवन पाया
जब वह नवजात था…
मां के हाथों का संस्पर्श पाकर,उसकी काया में तेज फूटा।
बचपन में जब उसने मां का हाथ थामा,
तब उसके निर्बल पैरों में,खड़े होने और चलने की शक्ति आई। - मां के शरीर का सानिध्य पाकर, उसने सबसे पहले पाया
देह के रूप गंध और ऊर्जा से परिचय…।
जब-जब वह क्षुधातुर हुआ…
मां के हाथ चौकी और बेलन पर चले - उसे चंदामामा के शक्ल की रोटियां मिलीं।
जब जब उसकी काया, निर्बल और निस्तेज दिखी
मां ने कृष्ण समझकर उसे अपने हाथों सेे मक्खन खिलाया।
जब पहली बार वह चलते-चलते जमीन पर गिरा,
मां के हाथों ने उसे सहारा देकर गोद में बैठाया।
जब जब उसका शरीर धूलि धूसरित हुआ,
मां के हाथ उसकी मोहक काया की धूल पोंछने को उद्धत हो उठे।
वह मां का जीवन था, धन था, प्राण था, सर्वस्व था;
वह ही था पिता के गर्व का प्रतिरूप।
जीवन की प्रत्येक यति, गति और स्थिति में उसे,
मां के हाथों का वात्सल्य युक्त आशीष मिला।
और पिता के सान्निध्य में प्राप्त हुआ जीवन संघर्ष का विरल कौशल।
समय अपनी चाल से चलता रहा…
जीवन तो जीवन है, समय के क्रम में परिपोषित और परिभाषित होता हुआ…
अपनी विभिन्न छवियों को प्राप्त करता रहा।
युवा होकर उसने अपने हाथों से मां के चरण स्पर्श किए…
शपथ ली पिता के नाम की… दुनिया बदल जाए पर वह नहीं बदलेगा।
पर आज दृश्य कुछ भिन्न है, उसके जीवन में हुआ कुछ नवीन है।
वह बदलाव चाहता है, अलगाव चाहता है…
चाहता है स्वतंत्रता…पर किससे?
उन हाथों से, उन चरणों से, उस चेहरे से, उस काया से
जिनसे उससे रूप और छवि का, बुद्धि और मेधा का,
जीवन और अस्तित्व का वरदान मिला।
वह परिवार टूट गया, जिसमें वह जन्मा था…
वे संबंधी छूट गए, जिनके मध्य उसमें पनपे थे…
नैतिकता सामाजिकता नागरिकता और कर्तव्य बोध के प्रथम अंकुर।
अब एक नया परिवार आकार ले रहा है…
जिसके केंद्र में, पिता की जगह वह है और मां की जगह पत्नी।
जिस पिता ने तोतली बोली में उसके मुख से फूटते प्रश्नों में बसी अपरिमित जिज्ञासा को अनथक रहकर अनवरत शांत किया था…
आज, कंधे पर बैठाकर मेला दिखाने वाला वह पिता
सहारे की आस में, घंटों से पानी मांगता अनबुझी प्यास में…
चक्कर खाकर, थककर, गिरकर सो गया है।
अब उसे मां की याद नहीं आती… क्योंकि
याद करने की दिशा, दशा और स्थितियां बदल गई हैं।
देखिए सकारात्मकता कैसे नकारात्मकता में बदली है… - आज उससे कुछ छूट रहा है; आज वह पल पल टूट रहा है
भीतर से है भान उसे कि वह हो गया है,
निर्बल, अशक्त, कृशकाय और सबसे बढ़कर दीन।
ऐसा नहीं कि उसे भोजन नहीं मिलता
पर जो नहीं मिलता वह है…
वात्सल्य और संबल, करुणा और ममता।
पत्नी भोजन तो देती है, प्रेम भी करती है
परंतु उससे स्नेह नहीं किया जाता।
प्रेम और स्नेह में अंतर मात्र इतना है मित्रों!
प्रेम प्रतिदान मांगता है, स्नेह में प्रतिदान की जगह नहीं होती।
इस कारण प्रेम है विकार युक्त और स्नेह है निर्मल और निष्कलुष।
प्रेम तो संसार में कोई किसी से करता है,
प्रेम की कला अनबूझी, अनजानी होकर भी थोड़ी बहुत सबको आती है।
पर स्नेह, वह तो केवल मां की थाती है।
प्रेम में पड़, स्वमोह में आबद्ध हो, वह हो गया है मां से दूर।
हो गया है स्नेह वंचित… इसलिए टूट रहा है।
जोड़ने की कला तो केवल संसार में मां को ही आती है।
वह जुड़ेगा जब उसे पुनः मिलेगा पिता रूप सृष्टा का साथ।
उसे पुनः प्राप्त होगा जीवन… जब उसे प्राप्त होगा जन्मदात्री जननी का गात।
और संतान की सर्व मंगल कामना के हित उठा आशीष युक्त हाथ।
विधि और विधाता भी जब नहीं सुलझा सके मातृत्व का रहस्य…
हो गए तब सहज भाव से उसके शरणागत।
फिर निर्बल और असहाय, दीन और कातर संतान के लिए
क्या माता विधाता से महत्तर और जीवन संजीवनी नहीं है?
ओ आत्मकेंद्रित संतानों! माता पिता का महत्व अब तो जानो।
न करो वियुक्त उन्हें स्वयं से…
उन्हीं के जीवन प्रतिरूप हो तुम अब तो यह मानो।
यदि वे होंगे पीड़ित,दुखित और उपेक्षित…
तो तुम अवश्य होगे वंचित, कारुण्य और कृपा से, वत्सलता और ममता से।
मैं सच कहता हूं मित्र! मां बाप को घर के अंधेरे कोने में पड़ी
त्याज्य और उपेक्षित वस्तु नहीं, देहरी का दीपक और आंगन की तुलसी जानो।
इस विश्वास में ही बसता है तुम्हारा गौरव,
इसमें ही सन्निहित है तुम्हारे पुत्र कहलाने की सार्थकता और महत्ता।
इसी विश्वास में है तुम्हारी मुक्ति भी भक्ति भी और शक्ति भी।
(एकल परिवार और नवसृजित संबंधों के संरक्षण की होड़ में माता-पिता से दूर होती आधुनिक संतानों के लिए संदेश कविता)
दिनांक 21.8.2020 रात्रि 4:00 बजे