मैं जिंदा शहर बनारस हूं…

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आओ जरा छू लो देखो तो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मैं विश्वनाथ का पावन गृह, मैं पत्थर पत्थर पारस हूं।
मिल लो ज़रा मुझको देखो तो, मैं चलता फिरता भारत हूं।
मैं प्रेमचंद की कर्मभूमि, कल कल गंगा का गायन हूं।
संपूर्ण धरा जिसको पूजे, वह तुलसी की रामायण हूं।
आओ जरा छू लो देखो तो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मैं भारतेंदु की हिंदी हूं, मैं ही प्रसाद का चंद्रगुप्त;
मेरी अनगिनत कथाएं ले, हैं प्रेमचंद्र जागृत सुषुप्त।
हैं मेरे मानस में बसे हुए, कितने सारस्वत ज्ञान गुप्त।
संस्कृति को शीश धरे अपने, चिर राष्ट्रभक्ति का गायक हूं।
आओ जरा मिलकर तो देखो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मैं हूं भैरव का अट्टहास, मैं ही गंगा का विमल हास।
मैं आंजनेय की सिद्ध भूमि, ज्ञानी गुणियों का चिर प्रवास।
मेरा कण कण अविनाशी है, मैं मोक्ष भाव प्रतिपादक हूं।
आओ जरा मिल लो मुझसे तो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मेरे आंगन में युग युग से, है भूखा कोई नहीं सोया।
मैं ही वह पावन धरती हूं, जहां मर कर कोई नहीं रोया।
मैं हरिश्चंद्र का सत्य त्याग, जीवन मंगल का अमर राग।
मैं मालवीय की देश भक्ति, वाणी वैभव संरक्षक हूं।
आओ जरा मिलकर तो देखो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मैं सब विद्या की रजधानी, पावन हिंदू विश्वविद्यालय हूं।
मैं ही हूं विद्यापीठ और मैं ही संस्कृत ज्ञानालय हूं।
मैं ज्ञान, कला का संरक्षक, नित नव प्रयोग संधानी हूं।
जो कंठ-कंठ से फूट रही वह लोकतंत्र की वाणी हूं।
मैं हूं त्रिशूल पर बसा हुआ, त्रयताप मुक्ति देने वाला।
अन्नपूर्णा का हूं वरद हस्त, खाली झोली भरने वाला।
मैं ही शिव का डमरू निनाद, गुरु शंकर का अद्वैतवाद।
हूं दयानंद का प्रखर तेज, सुभारति का वाणी विलास।
मैं हूं गिरिजा का लोकरंग, बिस्मिल्ला की शहनाई हूं।
आओ जरा मिल लो मुझसे तो मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
मैं लक्ष्मी बाई की जन्मभूमि, चंद्रशेखर का साधना धाम।
मेरी गलियों में गूंजे हैं, आजादी के किस्से तमाम।
मेरे घाटों पर ही कबीर ने, पाया था गुरु मंत्र ‘राम’।
मेरे कविता कानन में तुलसी ने, हैं काव्य रचे लोकाभिराम।
मैं दंभ गर्व का उपहासी, मन जीवन से सन्यासी हूं।
हूं मंत्र पुष्प में बसा हुआ, और आदत से रैदासी हूं।
जो जीवन को सुरभित कर साधे, वह अद्भुत कर्म विलासी हूं।
मैं ही सृष्टि की ज्ञान भूमि, कैवल्य ज्ञान संवाहक हूं
दस अश्वमेध का चिर साक्षी, शिवशक्ति पीठ का धारक हूं।
आओ जरा मिल कर देखो तो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
है चहल पहल इतनी मुझमें, है इतनी मुझ में रंगीनी
मुझसे मिल लोगे भूलोगे, तुम अपनी सारी गमगीनी।
पर्यटकों की आंखों का, मैं सुंदर दृश्य सजीला हूं।
संचित जो विश्व धरोहर में, वह रामनगर की लीला हूं।
मैं काशिराज का स्वाभिमान, हूं पार्श्वनाथ का गूढ़ ज्ञान।
श्वेतांबर और दिगंबर भी, मैं ही गौतम का महायान।
सारंग नाथ के प्रांगण में, मैं राज चिन्ह संरक्षक हूं।
आओ जरा मिल लो मुझसे तो मैं जिंदा शहर बनारस हूं।
घाटों, दीपों, आरतियों में, मैं जीवन दृश्य विहंगम हूं ।
पावन गंगा की गोदी में, मैं वरुणा अस्सी संगम हूं।
अपनों के स्वागत हित आतुर, कुंजों के आमों की मिठास
और निर्मल विह्वल हृदय लिए, वसुधैव भाव संधारक हूं।
स्वजनों के रंजन हित पीयूष,मैं कहां किसी से भी कम हूं।
आओ जरा मिल लो मुझसे तो, मैं जिंदा शहर बनारस हूं।

(बनारस की याद में,अपने बनारस को अपनी तरह याद करते हुए…)
दिनांक 23 अगस्त 2020
रात्रि 3:30 बजे

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