विपत्तियां… जीवन की नव मार्गदर्शिका!

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विपत्तियों से सब का परिचय है
आती हैं ये सब के जीवन में।
घिरकर इनमें पाता है मनुष्य स्वयं को एकाकी;
फंसकर आवर्त में उनके होता जाता है निरापद और क्रमशः असहाय।
संबंधों के प्रति आती जाती है उसमें एक विषाद युक्त उदासीनता।
आशा के अवलंब निरुद्देश्य, निरर्थक और बेमानी जान पड़ते हैं।
आप कहेंगे कि ऐसा होना तो सामान्य अनुभव है।
पर मेरी चिंता इस बात को लेकर नहीं है,
मैं सोचता हूं,कि आखिर विपत्तियों को इस तरह क्यों देखा जाता है?
क्यों नहीं अपनाते हैं हम उन्हें देखने-समझने का नया दृष्टिकोण!
क्यों नहीं मानते कि विपत्तियां हमें जीवन को जीने-समझने का नया अवसर, उद्देश्य और दृष्टिकोण प्रदान करती हैं।
वे भरती हैं हमें एक नया पौरुष और बल
यातनाओं, कुंठाओ, विभीषिकाओं,वर्जनाओं, आपत्तियों और असंभावनाओं  से लड़ने का।
दुर्गम जीवन पथ पर दृढ़ रहने का।
अपने अंतस की दुर्बलताओं को समझकर;
उन्हें चरित्र और व्यक्तित्व की सबलताओं में परिवर्तित करने का।
क्यों नहीं समझते हम उनके वास्तविक रूपाकार और प्रकृति को।
देखा जाए यदि उन्हें नवीन दृष्टि से,
समझा जाए यदि विपत्तियों को बाधाओं की अपेक्षा नए अवसरों के रूप में तो;
वे उपस्थित होती हैं हमारे जीवन की मुक्त मार्गदर्शिका के रूप में।
जीवन के अथ से इति तक को पुनर्नव रूप में परिभाषित करते  हुए।
जीवन के नवीन पथ, और उसके संचलन के नव दृष्टिकोण की संसूचिका के रूप में।
क्योंकि आसन्न जीवन स्थितियों के प्रति मनुष्य के हृदय में टीस और वेदना का प्रस्फुटन ही तो दूसरे अर्थों में भाग्योदय है।
पुण्य की प्रबलता है विपत्तियों का प्रतिफल।
जो मनुष्य को स्वयं के आंसुओं से धुल कर निष्कलुष होने का विरल अवसर प्रदान करती है
और उसे बनाती है आत्मावलंबी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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