महाकवि कालिदास और उनका मेघदूत(1)

Katha-Prasang

महाकवि कालिदास की जगत-विश्रुत कृति मेघदूत के विषय में लिखते हुए हिंदी आलोचना के शीर्ष पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि वैसे तो मेघदूत की कहानी बहुत पुरानी है पर साहित्य में इसे बार –बार अनेक ढंग से या यों कहें कि नए ढंग से कहा जाता रहा है।आचार्य प्रवर के इसी कथन को अपने विचारों के प्रस्तुतीकरण का आधार बनाकर मेघदूत और कालिदास के संदर्भ में कुछ निवेदन करने का साहस कर रहा हूँ।
वस्तुतः कालिदास कृत मेघदूत की कथा अलकापुरी निवासी एक यक्ष के परिचय से आरंभ होती है।उस सर्व गुण, कला तथा विभूतियों से मंडित यक्ष को अपने स्वामी तथा यक्षपति कुबेर के कोप-प्रसूत शाप का भाजन बन, शापग्रस्त हो अलकापुरी से वर्ष पर्यंत निर्वासन का दुस्सह दंड भोगने के कारण स्वप्रिया से वियुक्ति का असहनीय कष्ट सहन करना पड़ा।
शापग्रस्त हो अपने देवत्व के तेज से हीन,और महिमाविहीन उस प्रियाविरही यक्ष ने रामगिरि के पर्वत-नितम्ब को अपने विरह-आश्रय के रूप में चुना। ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रन्थ बताते हैं कि वनवास की अवधि में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने कुछ समय इस क्षेत्र में व्यतीत किया था। घने छायादार वृक्षों और सीता जी के स्‍नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंडों से युक्त रम्य रामगिरि में राम तो सीता अनुज समेत बसे पर यक्ष की परिस्थिति थोड़ी भिन्न थी।वह प्रिया-विरही था।प्रवास के आठ मास जैसे-तैसे बीते,परंतु प्रकृति परिवेश में आषाढ़ के आगमन के पहले ही दिन रामगिरि के सानु प्रदेश में उपस्थित एक काले मेघ को देख उस विरही का चित्त और व्यथित होने लगा।वर्षा काल के मनोरम वातावरणीय दृश्य ने उसके विरह-व्यथित चित्त की पीड़ा द्विगुणित कर दी। सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी दीखने वाली कलाई वाले उस यक्ष को चोटी पर झुके हुए मेघ को देख, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ढूँसा मारने में मगन कोई हाथी हो। यक्षपति का वह अनुचर कामोत्‍कंठा जगाने वाले मेघ के सामने किसी प्रकार ठहरकर, आँसुओं को भीतर ही रोके हुए देर तक सोचता रहा।मेघ को देखकर जब प्रिय के पास अवस्थित सुखी जन का चित्त भी और तरह का हो जाता है,तब कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही जन का तो कहना ही क्‍या?जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया के प्राणों को सहारा देने की इच्‍छा से उसने मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्‍देश भेजना चाहा। फिर, ताज़े खिले कुटज-पुष्पों का अर्घ्‍य देकर उसने गदगद हो प्रीति-पूर्ण वचनों से मेघ का स्‍वागत किया।विरही का चित्त स्वभावतः अस्थिर होता है।ऐसी ही मनोदशा वाला यक्ष सोचने लगा कि कहाँ धुएँ, पानी, धूप और हवा के जमघट से निर्मित मेघ और कहाँ सन्‍देश की वे बातें जिन्‍हें श्रेष्ठ संवेदना संपृक्त इन्द्रियों वाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं?परंतु उत्‍कंठा वश इस पर ध्‍यान न देते हुए यक्ष ने मेघ से ही याचना की। वस्तुतः जो काम के सताए हुए हैं, वे स्‍वभाव से जैसे चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप भी, दीन हो ही जाते हैं।यक्ष याचना पूर्ण स्वर में मेघ से कहने लगा कि हे मेघ! तुम पुष्‍कर और आवर्तक नाम वाले मेघों के लोक-प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न हो। मैं तुम्‍हें इन्‍द्र का कामरूपी मुख्‍याधिकारी जानता हूँ।विधि वश, अपनी प्रिया से दूर पड़ा हुआ मैं, इसी कारण तुम्‍हारे पास याचक बना हूँ।कहते हैं कि गुणीजन से याचना करना भी उत्तम है,चाहे वह निष्‍फल ही क्यों न रह जाए।अधम से माँगना उचित नहीं, चाहे सफल भी क्यों न हो।जो सन्‍तप्‍त हैं,हे मेघ! तुम उनके रक्षक हो।इसलिए कुबेर के क्रोधवश विरही बने हुए मुझ विरह संतप्त के सन्‍देश को मेरी प्रिया के पास पहुँचाओ।यक्ष ने निवेदन पूर्वक कहना आरंभ किया,
यक्षपतियों की अलका नामक प्रसिद्ध पुरी में तुम्‍हें जाना है, जहाँ के वाह्य उद्यान में बैठे हुए शिव के मस्‍तक पर विराजित चंद्र से छिटकती हुई धवल चंद्र-ज्योत्स्ना उसके भवनोंको धवलित करती है।जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो प्रवासी पथिकों की स्त्रियाँ मुख पर लटकते हुए अपने घुँघराले केशों को ऊपर फेंककर इस आशा से तुम्‍हारी ओर टकटकी लगाएँगी कि अब उनके प्रियतम अवश्‍य ही आते होंगे।तुम्‍हारे घुमड़ने पर ऐसा कौन-सा जन होगा जिसका जीवन भी यदि मेरी भांति पराधीन न हो तो वह विरह में व्‍याकुल अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन रह सके।मित्र!तुम्हारे संचरण के अनुकूल वायु तुम्‍हें धीमे-धीमे चला रही है।गर्व-भरा यह पपीहा तुम्‍हारे बाएँ आकर,मीठी रट लगा रहा है।तुम नयन-सुभग हो इस कारण गर्भाधान का उत्‍सव मनाने की अभ्‍यासी बगुलियाँ आकाशमें पंक्ति बद्ध होकर तुम्‍हारे समीप अवश्‍य पहुँचेंगी।ऐसे में,हे मेघ! तुम विरह के दिन गिनने में संलग्‍न तथा मेरी बाट देखते हुए जीवित,अपनी उस पतिव्रता भौजाई को,मार्ग में कहीं रुके बिना पहुँचकर अवश्‍य देखना।ऐसी मान्यता है कि वह आशा का बन्‍धन ही है जो प्राय:नारियों के पुष्प-सदृश सुकुमार प्रेम-पूर्ण हृदय को विरह में अकस्‍मात टूटकर बिखर जाने से रोके रहता है। तुम्‍हारा वह सुहावना गर्जन, जिसके प्रभाव से पृथ्‍वी खुम्‍भी की टोपियों का प्रस्फुटन प्राप्त करती और हरी होती है, उसे जब कमल वनों में क्रीड़ारत राजहंस सुनेंगे, तब मानसरोवर जाने की उत्‍कंठा से, अपनी चोंच में मृणाल के अग्रखंड का पथ-भोजन लेकर वे कैलाश तक के लिए आकाश में तुम्‍हारे सहचर बन जाएँगे। मित्र!अब अपने प्रिय सखा रूप इस ऊँचे पर्वत से गले मिलकर विदा लो जिसकी ढलवाँ चट्टानों पर जन वन्‍दनीय रघुपति के चरण-चिह्न अंकित हैं और जो समय-समय पर तुम्‍हारी सम्‍पर्क-प्राप्ति के कारण दीर्घ विरह के तप्‍त आँसू बहाकर अपना स्‍नेह प्रकट करता रहता है।
हे मेघ, पहले तो तुम अपनी यात्रा के लिए अनुकूल मार्ग को मेरे शब्‍दों में सुनो- यक्ष कहने लगा,थक-थककर
जिन पर्वतों के शिखरों पर पैर टिकाते हुए,और बार-बार क्षीण तन होकर जिन सोतों का हलका जल पीते हुए तुम जाओगे उसके पश्चात् मेरा यह सन्‍देश सुनना जो कानों से पीने योग्‍य है। इस आशंका से कि वायु तो कहीं पर्वत की चोटी को तो उड़ाए लिए नहीं न जाती है, भोली बालाएँ ऊर्ध्व-मुख और चकित चित्त हो-होकर तुम्हारा पराक्रम देखेंगी।इस स्थान से, जहाँ बेंत के हरे पेड़ हैं;तुम आकाश में उड़ते हुए मार्ग में अड़े दिग्गजों के स्थूल शुंडों का आघात बचाते हुए उत्तर की ओर मुँह करके जाना।चम-चम करते रत्‍नों की झिलमिल ज्‍योति-सा जो सम्मुख दृश्यमान है, इन्‍द्र का वह धनुखंड बाँबी की चोटी से निकल रहा है।उससे तुम्‍हारा यह साँवला शरीर उस प्रकार ही और भी अधिक छविमान हो उठेगा,जैसे झलकती हुई मोर शिखा से गोपाल वेशधारी श्रीकृष्‍ण का शरीर सज्जित हो गया था। कृषि का फल तुम्‍हारे अधीन है, इस उमंग से ग्राम-वधुएँ भौंहें चलाने में भोले,पर प्रेम की तरलता से आर्द्र; अपने नेत्रों में तुम्‍हें भर लेंगी। मालव क्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-घुमड़कर बरसना कि हल से तत्‍काल जोती हुई भूमि गन्‍धवती हो उठे। फिर कुछ देर बाद मंद गति से पुन: उत्‍तर की ओर चल पड़ना।मार्ग में तुम्हें मिलने वाला आम्रकूट पर्वत वन में लगी हुई अग्नि को अपनी मूसलाधार वृष्टि से बुझाने वाले तथा रास्‍ते की थकान से चूर, तुम जैसे उपकारी मित्र को सादर सिर-माथे पर रखेगा।क्षुद्र से क्षुद्र जन भी मित्र के अपने पास आश्रय के लिए आने पर पहले उपकार की बात सोचकर मुँह नहीं मोड़ते;ऐसे में जो उच्‍च हैं,उनका तो कहना ही क्‍या?पके फलों से दिपते हुए जंगली आम्रवृक्ष जिसके चारों ओर लगे हैं, उस पर्वत की चोटी पर जब तुम चिकनी वेणी के सदृश काले रंग वाले होकर घिर आओगे, तो उसकी मध्य में साँवले और सब ओर से पीले होकर ऊपर उठे पृथ्वी के स्‍तन सदृश मनोहारी शोभा देव-दम्‍पतियों के दर्शन करने योग्‍य ऐसी होगी। अपने कुंजों में वनचरों की वधुओं के रमण से रमणीय हुए, उस पर्वत पर तुम घड़ी-भर विश्राम ले लेना।तत्पश्चात जल बरसाने से हलके बनकर और भी चटक गति से अगला मार्ग तय करना।वहाँ हाथी के अंगों पर भाँति-भाँति के कटावों से निर्मित शोभा-रचना के सदृश विन्‍ध्‍य पर्वत के ढलानों में ऊँचे-नीचे ढोकों पर बिखरी हुई नर्मदा तुम्‍हें दिखाई देगी ।जब तुम वृष्टि द्वारा अपना जल बाहर उँड़ेल चुको तो नर्मदा के उस जल का पान कर आगे बढ़ना जो जंगली हाथियों के तिक्त सुरभित मद से सुवासित है तथा जामुनों के कुंजों में रुक-रुककर बहता है।हे मेघ, जब भीतर से तुम ठोस होगे तो वायु तुम्‍हें उड़ा न सकेगी, क्‍योंकि जो रिक्त तथा असम्पन्न होते हैं वे हलके, और जो भरे-पूरे होते हैं वे भारी-भरकम होते हैं। हे मेघ, जल-बिन्दुओं का वर्षण करते हुए तुम्‍हारे गंतव्य मार्ग पर कहीं तो भौरे अधखिले केसरोंवाले हरे-पीले कदम्‍बों को देखते हुए,तो कहीं हिरन कछारों में भुँई-केलियों के पहले फुटाव की कलियों को टूँगते हुए,और कहीं हाथी जंगलों में धरती की उठती हुई उग्र गन्‍ध को सूँघते हुए तुम्हें मार्ग की सूचना देते मिलेंगे।यक्ष कामविरही था,उसे अपनी प्रिया के पास संदेश भेजने की प्रबल उत्कंठा थी;इस कारण उसने मेघ से कहा, हे मित्र! मेरे प्रिय कार्य के लिए यदि तुम शीघ्र भी जाना चाहो, तो भी कुटज के फूलों से सुवासित हुई चोटियों पर मुझे तुम्‍हारा अटकाव दिखाई पड़ रहा है। अतः अपने सफेद डोरे खिंचे हुए नेत्रों में जल भरकर जब मयूर अपनी केकावाणी से तुम्‍हारा स्‍वागत करने लगेंगे, तब भी जैसे भी हो, शीघ्रतापूर्वक जाने का प्रयत्‍न करना। हे मेघ, तुम निकट आए कि दशार्ण देश में उपवनों की कटीली रौंसों पर केतकी के पौधों की नुकीली बालों से हरियाली छा जाएगी, घरों में आ-आकर रामग्रास खाने वाले कौवों द्वारा घोंसले रखने से गाँवों के वृक्षों पर चहल-पहल दिखाई देने लगेगी, और अपने पके फलों के कारण काले-भौंराले हुए जामुन के वन सुहावने लगने लगेंगे। तब हंस वहाँ कुछ ही दिनों के मेहमान रह जाएँगे। उस देश की दिगन्‍तों में विख्‍यात विदिशा नाम की राजधानी में पहुँचने पर तुम्‍हें अपने रसिकपने का फल तत्काल प्राप्त होगा। वहाँ तट के पास मंडराते हुए तुम वेत्रवती नदी के तरंगित जल का ऐसे पान करोगे जैसे उसका भ्रू-चंचल मुख हो।अपने विश्राम के लिए तुम वहाँ निचले पर्वत पर बसेरा करना जो तुम्‍हारा संपर्क पाकर पुष्पित प्रसूनों वाले कदम्‍बों से युक्त हो पुलकित-सा लगेगा।उसकी पथरीली कन्‍दराओं से उठती हुई गणिकाओं के भोग की रति-गन्‍ध पुरवासियों के उत्‍कट यौवन की सूचना देती है। विश्राम कर लेने के उपरांत, वन-नदियों के किनारों पर लगी हुई जूही के उद्यानों में कलियों को अपने नव जल-कणों से सिंचित करते हुए, और फूल चुननेवाली स्त्रियों, जिनके कपोलों पर कानों के कमल पसीना पोंछने की बाधा से कुम्‍हला गए हैं, उनके मुखों पर तनिक छाँह करते हुए पुन: आगे की ओर चल पड़ना।
यद्यपि तुम उत्‍तर दिशा की ओर जाने वाले हो और ऐसा करने से तुम्‍हें मार्ग का घुमाव पड़ेगा, फिर भी उज्‍जयिनी
के महलों की ऊँची अटारियों के अंक में बिलसने के सुख से विमुख न होना।क्योंकि बिजली के चमकने से चकाचौंध हुई वहाँ की नागरी स्त्रियों के नेत्रों की चंचल चितवनों का सुख यदि तुमने न लूटा तो समझना कि ठगे गए। अपनी लहरों के थपेड़ों से किलकारी भरते हुए हंसों की पंक्तिरूपी करधनी को झंकारती अपने,अटपट बहाव से अपनी चाल की मादकता को प्रकट करती हुई, तथा अपनी भँवररूपी नाभि को उघाड़कर दिखाती हुई निर्विन्‍ध्‍या नदी रूप रमणी से मार्ग में मिलकर उसका रस भीतर लेते हुए छकना।क्योंकि प्रियतम से स्‍त्री की पहली प्रणय-प्रार्थना उसकी श्रृंगार-चेष्‍टाओं द्वारा ही कही जाती है।तुमसे विरह के कारण,जिसकी पतली जलधारा वेणी बनी हुई है,और स्वतट स्थित वृक्षों से झड़े हुए पुराने पत्‍तों से जो पीली पड़ी हुई है,फिर भी अपनी विरह दशा से भी जो प्रवास में गए तुम्‍हारे सौभाग्‍य को प्रकट करती है, हे सौभाग्य सुभग! उस निर्विन्‍ध्‍या की तन-कृशता जिस उपाय से भी दूर हो वैसा अवश्‍य करना। उस अवन्ति देश में पहुँचकर,जहाँ के गाँवों के बड़े-बूढ़े जहाँ उदयन की कथाओं में प्रवीण हैं, तुम मेरे द्वारा पहले कही हुई विशाल वैभववाली उज्‍जयिनी पुरी को जाना क्योंकि सुकर्मों के फल छीजने पर जब स्‍वर्ग के प्राणी धरती पर बसने आते हैं, तब अपने बचे हुए पुण्‍य-फलों से उनके द्वारा साथ में लाया हुआ स्‍वर्ग का ही जगमगाता हुआ टुकड़ा ही मानो उज्‍जयिनी नगरी है। जहाँ प्रात:काल प्रवाहित होता शिप्रा का पवन खिले कमलों की भीनी गन्‍ध से महमहाता हुआ, सारसों की स्‍पष्‍ट मधुर बोली में चटकारी भरता हुआ, अंगों को सुखद स्‍पर्श देकर, प्रार्थना के चटोरे प्रियतम की भाँति स्त्रियों के रतिजनित खेद को दूर करता है।यक्ष ने कहा कि हे मित्र! उज्‍जयिनी में स्त्रियों के केश सुवासित करने वाला धूप-धूम्र गवाक्ष जालों से बाहर उठता हुआ तुम्‍हारे गात्र को पुष्‍ट करेगा, और घरों के पालतू मोर भाई-चारे के प्रेम के कारण तुम्‍हें नृत्‍य का उपहार भेंट करेंगे। वहाँ फूलों से सुरभित महलों में सुन्‍दर स्त्रियों के महावर लगे चरणों की छाप को देखते हुए तुम अपने मार्ग की थकान को मिटाना।
वहाँ त्रिभुवन-पति चंडीश्‍वर के पवित्र धाम में तुम जाना।जहाँ शिव के गण,अपने स्‍वामी के नीले कंठ से मिलती हुई तुम्हारी शोभा के कारण आदर तुम्‍हारी ओर देखेंगे। उसके उपवन के कमलों के पराग से सुगन्धित एवं जलक्रीड़ा करती हुई युवतियों के स्‍नानीय द्रव्‍यों से सुरभित गन्‍धवती की हवाएँ झकोर रही होंगी। हे जलधर, यदि तुम महाकाल के मन्दिर में समय से पूर्व पहुँच जाओ, तो तब तक वहाँ ठहर जाना जब तक सूर्य आँख से ओझल न हो जाए।क्योंकि वहाँ शिव की सन्‍ध्‍याकालीन आरती के समय नगाड़े जैसी मधुर ध्‍वनि करते हुए तुम्‍हें अपने धीर-गम्‍भीर गर्जनों का पूरा फल प्राप्‍त होगा। वहाँ प्रदोष-नृत्‍य के समय पैरों की ठुमकन से जिनकी कटिकिंकिणी बज उठती है, और रत्‍नों की चमक से झिलमिल मूठोंवाली चौरियाँ डुलाने से जिनके हाथ थक जाते हैं,ऐसी वेश्‍याओं के ऊपर जब तुम सावन के बुन्‍दा कड़े बरसाकर उनके नखक्षतों को सुख दोगे, तब वे भी भौंरों-सी चंचल पुतलियों से तुम्‍हारे ऊपर अपने लम्‍बे चितवन चलाएँगी। आरती के पश्‍चात आरम्‍भ होनेवाले शिव के तांडव-नृत्‍य में तुम, तुरत के खिले जपा पुष्‍पों की भाँति फूली हुई सन्‍ध्‍या की ललाई लिये हुए शरीर से, वहाँ शिव के ऊँचे उठे भुजमंडल रूपी वन-खंड को घेरकर छा जाना।इससे एक ओर तो पशुपति शिव रक्‍त से भीगा हुआ गजासुरचर्म ओढ़ने की इच्‍छा से विरत होंगे, दूसरी ओर पार्वती जी उस ग्‍लानि के मिट जाने से एकटक नेत्रों से तुम्‍हारी भक्ति की ओर ध्‍यान देंगी। वहाँ उज्‍जयिनी में रात के समय प्रियतम के भवनों को जाती हुई अभिसारिकाओं को जब घुप्‍प अँधेरे के कारण राज-मार्ग पर कुछ न सूझता हो, तब कसौटी पर कसी कंचन-रेखा की भांति चमकती हुई विद्युत से तुम उनके मार्ग में उजाला कर देना।वृष्टि और गर्जन करते हुए उन्हें घेरना मत,क्‍योंकि वे बेचारी भयभीत चित्त वाली होती हैं।
देर तक बिलसने से जब तुम्‍हारी विद्युत-प्रियतमा थक जाए, तो तुम वह रात्रि किसी महल की अटारी में जहाँ कबूतर सोते हों बिताना। फिर सूर्योदय होने पर शेष बचा मार्ग भी तय करना।क्योंकि मित्रों का प्रयोजन पूरा करने के लिए जो किसी काम को ओढ़ लेते हैं, वे फिर उसमें ढील नहीं करते। रात्रि में बिछोह सहनेवाली खंडिता नायिकाओं के आँसू सूर्योदय की बेला में उनके प्रियतम पोंछा करते हैं, इसलिए तुम शीघ्र सूर्य का मार्ग छोड़कर हट जाना, क्योंकि सूर्य भी कमलिनी के पंकजमुख से ओसरूपी आँसू पोंछने के लिए लौटे होंगे। तुम्‍हारे द्वारा हाथ रोके जाने पर उनका रोष बढ़ेगा। गम्‍भीरा के चित्‍तरूपी निर्मल जल में तुम्‍हारे सहज सुन्‍दर शरीर का प्रतिबिम्‍ब पड़ेगा ही।फिर कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके कमल से श्‍वेत और उछलती शफरी सदृश चंचल चितवनों की ओर अपने धीरज के कारण ध्‍यान न देते हुए उन्‍हें विफल कर दो। हे मेघ!गम्‍भीरा के तट से हटा हुआ नीला जल,जिसे बेंत अपनी झुकी हुई डालों से छूते हैं, ऐसा जान पड़ेगा मानो नितम्‍ब से सरका हुआ वस्‍त्र उसने अपने हाथों से पकड़ रक्‍खा है।हे मित्र! उसे सरकाकर उसके ऊपर लम्‍बे-लम्‍बे झुके हुए तुम्‍हारा वहाँ से हटना कठिन ही होगा, क्‍योंकि स्‍वाद जाननेवाला कौन ऐसा है जो उघड़े हुए जघन भाग का त्‍याग कर सके। हे मेघ!तुम्‍हारी झड़ी पड़ने से वाष्प छोड़ती हुई भूमि की उत्कट गन्‍ध के स्‍पर्श से जो सुरभित है, अपनी सूँड़ों के नथुनों में सुहावनी ध्‍वनि करते हुए हाथी जिसका पान करते हैं, और जंगली गूलर जिसके कारण गदरा गए हैं, ऐसा शीतल वायु देवगिरि जाने के इच्‍छुक तुमको मन्‍द-मन्‍द थपकियाँ देकर प्रेरित करेगा।
हे मेघ! वहाँ देवगिरि पर, तुम अपने शरीर को पुष्‍प-वर्षी बनाकर आकाशगंगा के जल में भीगे हुए फूलों की बौछारों से सदा वास करने वाले स्‍कन्‍द को स्‍नान कराना। नवीन चन्‍द्रमा को मस्‍तक पर धारण करने वाले भगवान शिव ने देवसेनाओं की रक्षा के लिए सूर्य से भी अधिक तेजस्वी अपने जिस तेज को अग्नि के मुख में क्रमश: संचित किया था, वही स्‍कन्‍द है। उसके पश्‍चात उस पर्वत की कन्‍दराओं में गूँजकर फैलनेवाले अपने गर्जित शब्‍दों से कार्तिकेय के उस मयूर को नचाना जिसकी आँखों के कोये शिव के शीशस्थ चन्‍द्रमा की चंद्र ज्योत्स्ना से धवलित हैं। उसके छोड़े हुए पैंच को,जिस पर चमकती रेखाओं के चन्‍दक बने हैं, पार्वती जी पुत्र-स्‍नेह के वशीभूत हो कमल पत्र के स्थान पर अपने कान में पहनती हैं।सरकंडों के वन में जन्‍म लेनेवाले स्‍कन्‍द की आराधना से निवृत होने के बाद तुम, तब आगे बढ़ना जब हाथ में वीणा लिये हुए सिद्ध दम्‍पति बूँदों के डर से मार्ग छोड़कर हट जाएँ और चर्मण्‍वती नदी के प्रति सम्‍मान प्रकट करने के लिए नीचे उतरना। गोमेघ से उत्‍पन्‍न हुई राजा रन्तिदेव की कीर्ति ही चर्मण्‍वती की जलधारा के रूप में पृथ्‍वी पर बह निकली है। हे मेघ! विष्‍णु के सदृश श्‍यामवर्ण तुम, जब चर्मण्‍वती का जल पीने के लिए झुकोगे तब उसके चौड़े प्रवाह को, जो दूर से पतला दिखाई पड़ता है,ऐसा प्रतीत होगा,जैसे मानो पृथ्वी के वक्ष पर मोतियों का हार हो जिसके बीच में इन्‍द्र नील का मोटा मनका पिरोया गया है और उसे आकाशचारी सिद्ध-गन्‍धर्व निश्‍चय एकटक दृष्टि से देखने लगेंगे। उस नदी को पार करके तुम अपने शरीर को दशपुर की स्त्रियों के नेत्रों की लालसा का पात्र बनाते हुए आगे जाना। भौंहें चलाने में अभ्‍यस्‍त उनके नेत्र जब बरौनियों के ऊपर उठते ही श्‍वेत और श्‍याम प्रभा के बाहर छिटकने से ऐसे लगते हैं, मानो वायु से हिलते हुए कुन्‍द पुष्‍पों के पीछे जाने वाले भ्रमरों की शोभा उन्‍होंने चुरा ली हो। उसके पश्चात् ब्रह्मावर्त जनपद के ऊपर अपनी परछाईं डालते हुए क्षत्रियों के विनाश की सूचक कुरुक्षेत्र की उस भूमि में जाना जहाँ गांडीवधारी अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाणों की वर्षा से राजाओं के मुखों पर ऐसी झड़ी लगा दी थी जैसी तुम मूसलाधार मेह बरसाकर कमलों के ऊपर करते हो। कौरवों और पांडवों के प्रति समान स्‍नेह के कारण युध्द से मुँह मोड़कर बलराम जी मन-चाहते स्‍वादवाली उस हाला को, जिसे रेवती अपने नेत्रों की परछाईं डालकर स्वयं पिलाती थीं, छोड़कर सरस्‍वती के जिन जलों का सेवन करने के लिए चले गए थे, तुम भी जब उनका पान करोगे, तो अन्‍त:करण से शुद्ध बन जाओगे, केवल तुम्हारा बाहरी रंग ही साँवला दिखाई देगा। वहाँ से आगे कनखल में शैलराज हिमवन्‍त से नीचे उतरती हुई गंगा जी के समीप जाना, जो सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए स्‍वर्ग तक लगी हुई सीढ़ी की भाँति हैं। पार्वती के भौंहें ताने हुए मुँह की ओर अपने फेनों की मुसकान फेंककर वे गंगा जी अपने तरंगरूपी हाथों से चन्‍द्रमा के साथ अठखेलियाँ करती हुई शिव के केश पकड़े हुए हैं। आकाश में दिशाओं के हाथी की भाँति पिछले भाग से लटकते हुए जब तुम आगे की ओर झुककर गंगा जी के स्‍वच्‍छ बिल्‍लौर जैसे निर्मल जल को पीना चाहोगे, तो प्रवाह में पड़ती हुई तुम्‍हारी छाया से वह धारा ऐसी सुहावनी लगेगी जैसे प्रयाग से अन्‍यत्र यमुना उसमें आ मिली हो। वहाँ आकर बैठनेवाले कस्‍तूरी मृगों के नाफे की गन्‍ध से जिसकी शिलाएँ महकती हैं,उस हिम-धवलित पर्वत पर पहुँचकर जब तुम उसकी चोटी पर मार्ग की थकावट मिटाने के लिए बैठोगे, तब तुम्‍हारी शोभा ऐसी जान पड़ेगी मानो शिव के गोरे नन्‍दी ने गीली मिट्टी खोदकर सींगों पर उछाल ली हो। जंगली हवा चलने पर देवदारु के तनों की रगड़ से उत्‍पन्‍न दावाग्नि, जिसकी चिनगारियों से चौंरी गायों की पूँछ के बाल झुलस जाते हैं, यदि उस पर्वत को जला रही हो, तो तुम अपनी असंख्‍य जल-धाराओं से उसे शान्‍त करना। श्रेष्‍ठ पुरुषों की सम्‍पत्ति का यही फल है कि दु:खी प्राणियों के दु:ख उससे दूर हों। यदि वहाँ हिमालय में कुपित होकर वेग से उछलते हुए शरथ मृग, उनके मार्ग से अलग विचरनेवाले तुम्‍हारी ओर, सपाटे से कूदकर अपना अंग-भंग करने पर उतारू हों, तो तुम भी तड़ातड़ ओले बरसाकर उन्‍हें दल देना। व्‍यर्थ के कामों में हाथ डालने वाला कौन ऐसा है जो नीचा नहीं देखता? वहाँ चट्टान पर शिवजी के पैरों की छाप बनी है। सिद्ध लोग सदा उस पर पूजा की सामग्री चढ़ाते हैं।तुम भी भक्ति से झुककर उसकी प्रदक्षिणा करना। उसके दर्शन से पाप के कट जाने पर श्रद्धावान लोग शरीर त्‍यागने के बाद सदा के लिए गणों का पद प्राप्‍त करने में समर्थ होते हैं। वहाँ पर हवाओं के भरने से सूखे बाँस बजते हैं और किन्‍नरियाँ उनके साथ कंठ मिलाकर शिव की त्रिपुर-विजय के गान गाती हैं। यदि कन्‍दराओं में गूँजता हुआ तुम्‍हारा गर्जन मृदंग के निकलती हुई ध्‍वनि की तरह उसमें मिल गया, तो शिव की पूजा के संगीत का पूरा ठाट जम जाएगा।
हिमालय के बाहरी अंचल में उन-उन दृश्‍यों को देखते हुए तुम आगे बढ़ना। वहाँ क्रौंच पर्वत में हंसों के आवागमन का द्वार वह रन्‍ध्र है जिसे परशुराम ने पहाड़ फोड़कर बनाया था। वह उनके यश का स्‍मृति-चिह्न है। उसके भीतर कुछ झुककर लम्‍बे प्रवेश करते हुए तुम ऐसे लगोगे जैसे बलि-बन्‍धन के समय उठा हुआ त्रिविक्रम विष्‍णु का साँवला चरण सुशोभित हुआ था। वहाँ से आगे बढ़कर कैलास पर्वत के अतिथि होना जो अपनी शुभ्रता के कारण देवांगनाओं के लिए दर्पण के समान है।उसकी धारों के जोड़ रावण की भुजाओं से झड़झड़ाए जाने के कारण ढीले पड़ गए हैं।वह कुमुद के पुष्‍प जैसी श्‍वेत बर्फीली चोटियों की ऊँचाई से आकाश को छाए हुए ऐसे खड़ा है मानो शिव के प्रतिदिन के अट्टहास का ढेर लग गया है। हे मेघ!चिकने घुटे हुए अंजन सदृश शोभा से युक्‍त तुम जब उस कैलास पर्वत के ढाल पर जो हाथी दाँत के तुरन्‍त कटे हुए टुकड़े की तरह धवल है,घिर आओगे, तो तुम्‍हारी शोभा आँखों से ऐसी एकटक देखने योग्‍य होगी मानो कन्‍धे पर नीला वस्‍त्र डाले हुए गोरे बलराम हों। जिस पर लिपटा हुआ सर्परूपी कंगन उतारकर रख दिया गया है, शिव के ऐसे हाथ में अपना हाथ दिए यदि पार्वती जी उस क्रीड़ा-पर्वत पर पैदल घूमती हों, तो तुम उनके आगे जाकर अपने जलों को भीतर ही बर्फ रूप में रोके हुए अपने शरीर से नीचे-ऊँचे खंड सजाकर सोपान बना देना जिससे वे तुम्‍हारे ऊपर पैर रखकर मणितट पर आरोहण कर सकें। वहाँ कैलास पर सुर-युवतियाँ जड़ाऊ कंगन में लगे हुए हीरों की चोट से बर्फ के बाहरी आवरण को छेदकर जल की फुहारें उत्‍पन्‍न करके तुम्‍हारा फुहारा बना लेंगी। हे सखे!धूप में तुम्‍हारे साथ जल-क्रीड़ा में निरत उनसे यदि तुम शीघ्र न छूट सको तो अपने कर्णभेदी गर्जन से उन्‍हें डरा देना। हे मेघ! अपने मित्र कैलास पर नाना भाँति की ललित क्रीड़ाओं से मन बहलाना। कभी सुनहरे कमलों से भरा हुआ मानसरोवर का जल पीना; कभी इन्‍द्र के अनुचर अपने सखा ऐरावत के मुँह पर क्षण-भर के लिए कपड़ा-सा झाँपकर उसे प्रसन्‍न करना; और कभी कल्‍पवृक्ष के पत्‍तों को अपनी हवाओं से ऐसे झकझोरना जैसे हाथों में रेशमी महीन दुपट्टा लेकर नृत्‍य के समय करते हैं। हे कामचारी मेघ!जिसकी गंगारूपी साड़ी सरक गई है ऐसी उस अलका को प्रेमी कैलास की गोद में बैठी देखकर तुम न पहचान सको, ऐसा नहीं हो सकता। वर्षा के दिनों में उसके ऊँचे महलों पर जब तुम छा जाओगे तब तुम्‍हारे जल की झड़ी से वह ऐसी सुहावनी लगेगी जैसी मोतियों के जालों से गुँथे हुए घुँघराले केशोंवाली कोई कामिनी हो।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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