रूप,रस, गंध और स्पर्श ये गुण हैं धरती के;
होकर रूप और वर्ण में अनंत,
रहते हैं फूटते,जो उसके अंतर से…
इसी से है अनंतवर्णा और अनंतरूपा यह।
धरती का रूप ही तो है
जीवों,वनस्पतियों सहित यह चराचर जगत
और हमारी काया भी।
हममें समाई है धरती ही, मातृरूपा होकर;
हाँ ! दिखता है जो जैसा, उसमें
परिलक्षित होती है धरती ही तो
अलग-अलग रूपों में विविधरूपा बनकर…।
रसवंती है यह, बनकर रसरूपा;
यही तो है सन्निहित,अन्न,फल-फूलों की सरसता में।
है गंधवती भी… यह पृथु-पालिता;
बसती है बनकर सुवास… यही तो,
पाटल,केतकी,चम्पक,मल्लिका,
जुही,जलज और रजनीगंधा के हृदयों में
यही नहीं,फूटता है, धरती का ही सौरभ
हमारी देहगंध में भी…
होकर वत्सला मातृ सदृशा,धरती ही
छूती और दुलारती है हमें
बसता है स्पर्श में उसका जननी और धात्री रूप।
अनंत प्रसविनी है यह क्षमा;
प्रतिफल है, संपूर्ण सृष्टि…
इसी के वात्सल्यमय कारुण्य का…
हो सकते हैं अंतर बहुत से, उसकी संततियों में;
स्तर पर दृश्यता के…
किंतु मौलिक समता भी, है सबमें एक…
कि सबमें बसी है, यही मृण्मयी और
सभी तो जाये हैं, इसकी ही कोख के ।
लुटाती है मुक्त स्नेह, वह अपना अनवरत;
रहती है मुद्रा में, अखंड वरदान की।
देती हुई संबल,अपनी वत्सलता का…
कण-कण और तृण-तृण को;
रूप,रस,गंध और स्पर्श के अवतारी औदार्य में…।
कहलाते हैं पंचमहाभूत…
क्षिति,जल पावक,समीर और गगन
इनसे ही बनकर, हैं हम देही सजीव
है हममें भार, क्षिति तत्त्व से ही…
हमारे कायिक अस्तित्व का अधिकांश;
होता है प्राप्त हमें इसी क्षिति तत्त्व से…।
जल पोषक है…पावन है…
है वह ही आधार,
हमारे क्षिति-रूप की सरसता का…
जीवन कहा…इससे ही हमने उसे।
कल-कल प्रवाही नदियाँ
और चंचल उर्मियों को अपने वक्ष पर धारण करते अर्णव;
दृश्यमान प्रतिनिधि हैं, वसुधा पर इसी महाभूत के…।
पावक है तेज और ऊर्जा का जनक भी है;
प्रखर और विशुद्ध है, वह निज स्वभाव में…।
बनकर ऊष्मा… वही तो विकीर्ण है, द्रव्यमयता में क्षिति की;
है वही स्थित,होकर ऊर्जा रूप…
हमारे शरीरों के, अणु-परमाणु में।
तेज समाविष्ट है, आदित्य में… अग्नि का ही
है जो ऊर्जा-संवाही मित्र…हमारी इस पुण्यप्रद धरा का…।
समीर है… संचारी महाभूत;
होता है संचरित, यह हमारे हृदयों में ।
यही तो है प्राण…
वसुधा के परितःभी समीर ही प्रसरित है।
होकर अदृष्ट वायु-रूप;
बसता है यही तो… मरुत की उनचास कोटियों में।
उसी के अंतर्गमन… और बहिर्गमन का…
आवधिक सातत्य ही तो, है हमारा जीवन।
वृक्ष हैं हम मनुष्यों के अग्रज, होकर समीर-संचारक ही तो;
समीर से ही है जड़,जड़ होकर भी सचेतन…
और उसी से है यह प्रकृति प्राणवंत भी…।
गगन है शून्य, फिर भी है असीम…
और उसकी निस्सीमता उद्घोषणा है…
संभावनाओं की अनंतता की…।
प्रगति की,विकास तथा उन्नति की…।
यश रूप है गगन…
स्वामी है वह,दिगंगनाओं का…।
तारक,ग्रह,उपग्रह नक्षत्रों के पुंज को;
देता स्थान निज अंक में…
वही है पिता,वही तो परम है।
है वह नादमय,ध्वनिमय,शब्दमय…
स्वयं ही स्वयं से,होता जो उद्भासित;
ऐसा है शिव-रूप,ऐसा है दिव्य वह;
वह ही तो, निज के विस्तार की,
कीर्ति में अनंत है…।
पीयूष रंजन राय
28/07/2023