AGYAN,MRITYU AUR VAIRAGYA:Parikshit kee katha(परीक्षित की कथा)

Kahani

यह एक द्वापरयुगीन कथा है…महाभारत-युद्ध के उपसंहार काल में जब याज्ञसेनी द्रौपदी ने समाचार पाया कि द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा ने उसके सभी पाँच पुत्रों की हत्या कर दी है तब पुत्र-शोक से विह्वला होकर उस महीयसी ने पांडवों से अश्वत्थामा को पराजित करनेऔर उसके मस्तक की मणि को प्राप्त कर उसे सदा के लिए श्रीहत बनाने के संकल्प का प्रतिदान माँगा।

पांडवों के भय से पलायन कर सुरक्षित आश्रय की खोज करते अश्वत्थामा को गांडीवधारी अर्जुन ने खोज निकाला।दोनों के मध्य हुए भीषण संग्राम में ब्रह्मास्त्रों के प्रयोग की स्थिति बन पड़ी। तब भगवान्  वेदव्यास के परामर्श से अर्जुन ने तो अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया परंतु महाभारत युद्ध की स्मृतियों से क्षुब्ध एवं क्रुद्ध अश्वत्थामा ने पांडवों के समूल वंश-नाश की इच्छा से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु पर ब्रह्मशिर नामक अमोघअस्त्र का संधान कर दिया।

पांडव व्याकुल हो उठे, वंश-नाश की कल्पना से उनका ह्रदय विदीर्ण होने लगा। यह देखकर उनके चिर सखा योगेश्वर भगवान कृष्ण ने उसकी रक्षा का व्रत लिया। मधुसुदन सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हुए और अपने योग-बल से उस शिशु-भ्रूण की रक्षा की। दस मास बीते…शिशु ने जन्म लिया परंतु उसके शरीर में जीवन के लक्षण प्रकट नहीं हुए। शव-तुल्य बालक को देखकर स्त्रियाँ रुदन करने लगीं। वंश-बेलि को पुष्पित-पल्लवित करने वाला एकमात्र लता-नवांकुर अपने अंकुरण काल में ही गत प्राण हो गया।

श्रीकृष्ण उपस्थित हुए, अपनी वचन-प्रतिज्ञा के सत्य-प्रतिफल के रूप में उन्होंने अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र को पुनर्जीवन दिया। कुरु कुल की परिक्षीणता के उपरांत जन्म लेने तथा प्रथमतः मृत्यु द्वारा परिक्षीण होने के पश्चात् जीवन प्राप्त करने के कारण भगवान कृष्ण ने उस बालक को परीक्षित कह कर पुकारा।

महाभारत समाप्त हुआ…द्वापर की आयु भी समाप्त हुई… कलियुग ने जन्म लिया… श्रीकृष्ण ने अपने लीला वपु का परित्याग कर श्रीविष्णु रूप में क्षीरोदधि में वास किया…राज्य-सुख के उपरांत स्वर्ग-सुख की कामना से पांडव हिमालय के रास्ते स्वर्गारोहण यात्रा पर चले।

तब भगवान कृष्ण के कृपा-कटाक्ष द्वारा जीवन-निधि से सुरभित परीक्षित राजा हुए। अनेक वर्षों तक न्याय एवं धर्म का राज्य करने वाले वे ही परीक्षित जब एक बार वन-विहार कर रहे थे तब कलियुग के प्रभाव से मतिभ्रष्ट होकर उन्होंने अज्ञानतावश एक सर्प को शमीक नामक एक ऋषि के गले में डाल दिया। ऋषि, राजा के इस दुर्बुद्धिपूर्ण व्यवहार से अत्यंत क्रुद्ध हुए। राजा को उनकी अज्ञानता का दंड मृत्यु के शाप के रूप में प्राप्त हुआ

…जिसे फेंककर तुमने मेरी शुचिता को अपमानित किया है वही सात दिनों में तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।

ऋषि की शाप-वाणी सुनकर परीक्षित व्याकुल हो उठे। अपनी आयु को मात्र सात दिनों में समाप्त होता जानकर उनके मन में जीवन से वैराग्य उत्पन्न हो गया। सांसारिक विषयों से विरक्त तथा परलोक सुधारने की प्रबल उत्कंठा से योगस्थ हो वे गंगा तट पर जा बैठे।आर्यवर्त के सम्राट को इस प्रकार जीवन-विरक्त देख गंगा के उस पावन तट पर देश-देशांतर के अनेक तत्त्ववेत्ता,ब्रह्मज्ञानी एवं  वीतराग तपस्वी और महात्मा एकत्र होने लगे। जिनका मुख ही वेद और वाणी ही अध्यात्म थी ऐसे वीतराग,परमज्ञानी शुकदेव जी ने भी अपनी उपस्थिति से उस सभा का गरिमा-मंडन किया।

ऋषियों के सदुपदेश से प्रेरित राजा परीक्षित ने शुकदेव से करबद्ध प्रार्थना की… भगवन्! मेरी आयु अब मात्र सात दिन शेष है…इसके पश्चात मैं काल-कवलित हो जाऊँगा…मेरे उद्धार का मार्ग क्या है?बताइए…

शुकदेव जी बोले…समस्त  सांसारिक विषयों से मुक्ति का मार्ग है- ज्ञान। ज्ञान से वैराग्य-भाव की प्राप्ति होती है और वैराग्य ही मनुष्य को देहाभिमान से मुक्त कर उसकी मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग को सुगम बनाता है। ऐसा कहकर शुकदेव जी ने परमपुरुष भगवान् श्री हरि नारायण के विमल अवतारी चरित्रों की कथा  परीक्षित को सुनाई…परीक्षित का देहाभिमान विगलित हुआ। उन्होंने कहा-महात्मन् आपके श्रीमुख से निःसृत इस विमल ज्ञानोपदेश से मेरी मति शरीर और इसकी मृत्यु  के प्रति वैसे ही अनासक्त हो गई है जैसे अपनी जीर्ण एवं मृत त्वचा के परित्याग के प्रति सर्प ।

आज की परिस्थितियाँ भी उस काल के समान ही हैं।  परीक्षित राजा थे,बली थे, ऐश्वर्यशाली थे, कुलीन थे; उनका अभिमान और उससे उत्पन्न उनकी मनश्चिंता  भी सत्य थे, इसलिए सोचता हूँ  कि उन्हें तो मात्र देहाभिमान था और वह भी वास्तविक परंतु आज तो मनुष्य को आभासी और मिथ्या अभिमान-समूहों  ने अपने वृत्त में बाँध लिया है। धन,क्षमता,पद और प्रतिष्ठा के अनेकानेक मिथ्याभिमान। ऐसे में प्रश्न यह है किअभिमानों के विकट वृत्त में  घिरे इस आधुनिक मनुष्य रूपी परीक्षित की मुक्ति का मार्ग क्या है?क्योंकि तक्षक तो अब भी जीवित है…और उसका दंश भी अवश्यसंभावी ही है। मुझे लगता है कि उपाय भी वही है…जब तक मृत्यु-रूप,काल-सर्प तक्षक डँसे, तब तक उसके चित्त और आत्मा में मिथ्याभिमानों से मुक्ति देने वाला ज्ञान उत्पन्न हो जाए ।

 

 

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