कोरोना-संकट

Kavita

आजकल जब देखता और सुनता हूँ,

कोई कहीं जा नहीं सकता,

एक साथ…

तो मन बैठ जाता है।

यह ‘कोरोना काल’ है मित्रों,

सँग-सँग चलने और साथ निभाने का वचन देने वाले जीवन-संगी भी;

भारत-मंत्र को भूल अयं निजःपरो वेति की गणना करने लगे हैं।

पहले जीवन-मंत्र था,सब साथ रहें,सब साथ चलें;

अब जीवन-मंत्र है, सब दूर रहें…

पहले लोग कहते थे, किसी को दुःखी देखकर ,

उसकी सहायता के लिए ,

घरों से न निकलना कहाँ की मनुष्यता है?

यह तो निरी पशुता है…

पर आज तो कोरोना के कारण, अपने भी बचने लगे हैं अपनों से।

पहले मुँह छिपाकर समाज में जाना,

मूर्खता और कायरता का सूचक था ;

पर आज तो  वही समझदारी,ज़िम्मेदारी और वीरता का पर्याय है…

बुद्धिजीवी, विचारक, व्यवस्थापक पहले चिंतित होते थे;

अलगाववाद की समस्या को लेकर ।

सब मिलकर न रहे तो देश,समाज कैसे बचेंगे…

आपस का मेल और भाई-चारा, यही तो राष्ट्रीय जीवन का प्राण-तत्त्व है।

पर आज चिंता है सबको कि अगर दूरी न बढ़ी,मेलजोल बढ़ गया तो,

मनुष्य ही कैसे बचेगा?समाज और राष्ट्र तो बाद की चीजें हैं…

कल मन कुछ और ही उदास था…

और आजकल सुख-दुःख बाँटने-बंटाने के लिए ,

जीवन-शैली में सम्मिलित हो गया है;

टी वी और मोबाइल का साथ।

अकसर खुला ही रहता है टेलीविज़न,

और मानवीय-श्रम को मूर्त-रूप देने वाले हाथों ने;

अपनी सहज गरिमा का परित्याग कर,ले ली है मोबाइल की शरण।

नज़रें अब स्क्रीन पर जाती ही रहती हैं…

संक्रमण कितना बढ़ा… कहाँ से कितनों का पलायन हुआ?

कितनों ने घर छोड़ा,कितनों ने दुनिया छोड़ दी?

चैनलों पर निरंतर, अबाधगति से प्रसारित होते रहने वाले,

मूर्खतापूर्ण विचारों के संकलन का कोई लाइव-शो

अपने चरम को प्राप्त कर रहा था…

बहुत बड़ा संकट,वैश्विक आपदा,ख़तरे में जान-जहान…

हैरान  हैं वैज्ञानिक…

वायरस अब अपने लक्षण बदल रहा है…

उदास तो था ही,और उदासी बढ़े…इससे पहले

मन के उस उदास कोने के बाद की बची जगह को, इस विचार ने घेर लिया कि

जीवन को आगे धकेलना है तो;

पीड़ा को पीकर हँसना आना चाहिए।

और इस ‘वायरस-विमर्श’ पर हँसी आ गई ,यह सोचकर कि…

प्रकृति के एक अदना से सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव ने,

विज्ञान के अतिक्रामी,द्रुतगामी रथ की लगाम थाम,

उसे स्थिर और किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहने पर विवश कर दिया है…

स्वयं होकर विशेषातिविशेष, उसने बना दिया है;

संप्रभु मनुष्य और उसकी वैज्ञानिकता को निरीह और अदना।

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