मिथिला के जीवन में आज वह बहुप्रतीक्षित शुभ दिन आ ही गया जब उसकी पुत्री अपने प्रियतम का परिणय करेगी…मिथिला की भूमि से उत्पन्न भूमिजा को भूमिजारमण मिलेंगे…सब तो सोच ही रहे हैं कि कौन होगा सीतापति… परंतु सबकी सोच को दिशा देने वाले राम,वे भी सोच रहे हैं कि विधाता ने न जाने सीता के शुभ वरण का सौभाग्य किसके ललाट की रेखाओं में अंकित किया है … मुनि विश्वामित्र सहित दोनों भाई स्वयंबर सभा की ओर चले। स्वयंवर सभा में पहुंचे हुए श्री राम को सबने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा। स्त्रियां अपने हृदय में हर्ष धारण करके अपनी अपनी रूचि के अनुरूप राम का दर्शन कर रही हैं। राजा जनक की सभा में उपस्थित विद्वान उन्हें विराट रूप में देख रहे हैं तो वहीं राजा जनक के कुटुंबी उन्हें अपने संबंधी और सगे के रूप में देखते हैं। विदेह राज जनक और सभी रानियों को राम अपने पुत्र के समान दिखाई पड़ते हैं। हरि भक्तों को इष्ट देव के रूप में और सीता को अपने प्रियतम रूप में दिखाई पड़ते हैं। जिसका जैसा मनोभाव है, अपने सुंदर सांवले स्वरूप से विश्व भर के नेत्रों की दृष्टि को सम्मोहित करने वाले राम, उसे उस रूप में दिखाई देते हैं। उपस्थित राज-समाज के मध्य अपनी मुख छवि से शरद काल के पूर्णचंद्र की छटा को भी निंदित कर देने वाले, नख शिख सर्वांग सुंदर, राजा दशरथ के ये दोनों पुत्र राम और लक्ष्मण ऐसी अनुपम शोभा के धारक हैं कि उनका रूप दर्शन करने वालों के नेत्रों की पुतलियां स्तंभित हो गई हैं। सब ऐसा अनुभव करते हैं जैसे राम उन्हीं को देख रहे हैं। उपस्थित राजा गण राम को देखकर अपने हृदय में हताशा का अनुभव करते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि राम ही धनुष को तोड़ेंगे और उनका आना अब व्यर्थ ही है। किसी किसी के मन में तो ऐसा विचार आता है कि ऐसे रूप सौंदर्य को देखकर राजा जनक की पुत्री बिना धनुष तोड़े ही उनके गले में वरमाला डाल देंगी। राम मनोभावों के पोषक हैं। कुछ राजा अन्य राजाओं के इस विचार पर उनकी हंसी उड़ाते हैं। उनका विचार है कि धनुष भंग किए बिना तो विवाह संभव है ही नहीं। और यदि ऐसा होता भी है तो वे सहजता से सीता का विवाह होने ही नहीं देंगे। राजाओं की ऐसी बात सुनकर अनुभवी लोग मन ही मन मुस्काते हैं। उनका मंतव्य है कि विवाह तो सीता और राम का ही होगा। रही बात युद्ध की, तो उसमें चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पुत्रों को जीतने वाला संसार में है ही कौन? राजा जनक की सभा देवलोक के आकर्षण का भी केंद्र बन गई है। अनेक देवी देवता अपने अपने विमानों में चढ़कर स्वयंबर सभा में उपस्थित श्री राम का दर्शन कर रहे हैं और उनकी रूप छवि तथा सौंदर्य की चर्चा करते हुए हर्षित हो रहे हैं।
उचित अवसर समझ कर राजा जनक ने अपनी पुत्री जानकी को स्वयंबर सभा में उपस्थित होने का आदेश दिया है। सखियों सहित स्वयंवर सभा में आती हुई सीता ऐसी दिखाई पड़ती हैं मानो वे त्रिगुणात्मिका शक्ति का साक्षात स्वरूप हैं। उनकी शोभा के सम्मुख देवी सरस्वती, भगवती पार्वती भगवती लक्ष्मी तथा कामदेव प्रिया रति की शोभा पर भी अत्यंत अल्प प्रतीत होती है। सरस्वती अत्यंत मुखर हैं, पार्वती अर्धनारि नटेश्वर के स्वरूप में अर्धांगिनी हैं, रति स्वयं के पति को अनंग जानकर व्यथित चित्त वाली है। भगवती लक्ष्मी का समुद्भव खारे जल वाले समुद्र से हुआ है। अतः ये सभी सीता के सहज प्राकृतिक सौंदर्य की समता नहीं कर सकते। सखियां अपने नवल शरीर पर सुंदर साड़ी को सुशोभित किए हुए अतुल्य एवम् महा छवि की संधारिका सीता को लेकर रंगभूमि में प्रवेश कर रही हैं। रंगभूमि में प्रविष्ट होतीं सीता को देख सभी नर नारी सम्मोहित हो गए हैं। उपस्थित राजा चकित होकर आश्चर्य पूर्वक सीता की ओर देखते हैं परंतु सीता का चित्त राम के रूप दर्शन के लिए व्याकुल है। वह अपने चंचल नेत्रों से इधर उधर राम की रूप छवि को ढूंढ रही हैं। सीता की ऐसी दृष्टि का अवलोकन करके सभी राजा सम्मोहित से प्रतीत होते हैं। सीता के नेत्रों ने राम का संधान कर लिया है। मुनि विश्वामित्र के समीप बैठे दोनों भाइयों को देखकर सीता के नेत्र ऐसे हो गए हैं मानो उन्होंने राम की रूप निधि का दर्शन करके अपना खोया हुआ खजाना पा लिया हो। सीता के ये पुलकित नेत्र अब राम के रूप में स्थिर हो गए हैं। वे अब किसी दूसरी ओर जाते ही नहीं। परंतु उपस्थित गुरुजनों से लाज तथा लोगों के विशाल जनसमूह को अपने समक्ष पाकर स्त्रियों के शील और सौंदर्य की अधिष्ठात्री सीता ने अपने मुख पर संकोच का आवरण धारण कर लिया है। श्री राम की मृदुल छवि को अपने हृदय में बसाकर वे सखियों की तरफ देखने लगी हैं। जो राम सबके मन की गति का संचालन करते हैं उनके विवाह के लिए अपने मन की गति को विधाता से विनय के रूप में जोड़ते जनकपुर के नर नारियों की दशा बड़ी विचित्र है। सभी प्रार्थना रत हैं कि वैदेही को वर के रूप में रघुवर मिलें।