सठ सेवक की प्रीति रुचि, रखिहहिं राम कृपालु…राम का प्रीतिपरायण चरित्र(भाग-1)

Katha-Prasang

रामचरितमानस के अमर रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के रचना प्रसंग में यह  सारगर्भित टिप्पणी अपने विषय में  की है।उनका यह अखंड विश्वास है कि जो दीन हितकारी राम अपने नाम के अंकन मात्र से पाषाण खंडों को सागर के चंचल वक्ष पर जलयान सदृश तैरा देते हैं और अपने आश्रय में आने वाले वानर-भालुओं को सुमति तथा सुबुद्धि देकर अपना सचिव बना लेते हैं; वे कृपालु रघकुलश्रेष्ठ उनके प्रति मुझ जैसे अपने शठ सेवक के प्रेम और रुचि का भी अवश्य संरक्षण करेंगे। यह उक्ति मेरे मन में राम को जानने की उत्कट अभिलाषा  जगाती है। सोचता हूं क्या इसी विलक्षण चारित्रिक विशेषता के कारण राम भारत के सभ्यता पुरुष हैं? वस्तुतः राम का संपूर्ण जीवन वृत्त ही दूसरों की प्रीति और रुचि के रक्षण की अनुपम कथा है।अपने जीवन के अथ से इति तक राम ने  इस बात को ही प्रमाणित किया है।राम के जन्म की शपथ ही प्रीति का रक्षण तथा रुचि का पोषण और  संवर्धन है।जब देवमाता अदिति और पृथ्वी पालक महर्षि कश्यप ने श्री हरि विष्णु को पुत्र रूप में प्राप्त करने की मनोकामना से उनकी अखंड तपस्या की तो भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए। उन्होंने माता अदिति से वर मांगने को कहा। अदिति ने नारायण से कहा- हे भक्त- वत्सल आप संसार के समस्त जीवों पर अपना वात्सल्य सहज भाव से लुटाते हैं परंतु अपनी तपस्या के प्रतिफल के रूप में मैं आप पर अपना वात्सल्य लुटाने का वर चाहती हूं।सबके चित्त की दशा को जानकर उसे यथार्थ में परिणत करने वाले अन्तर्यामी, मुझे अपनी माता बनने के गौरव से विभूषित कीजिए।

संसार के सभी प्राणियों के चित्त को अपने नियंत्रण की विराट परिधि में समेट कर रखने वाले नारायण असमंजस में पड़ गए। ऐसा होना स्वाभाविक भी था,जो अजन्मा है,शाश्वत और नित्य है अयोनिज है वह जन्म-मृत्यु के बंधनों में कैसे बंधेगा ? जिसके भीतर  संपूर्ण संसार सृष्टि, स्थिति और विनाश की गतियों को प्राप्त करता है वह माता के गर्भ में पले,यह कैसे संभव है? भगवान् विष्णु ने कहा हे देवी मैं तो अजन्मा और निराकार हूं मैं जन्म कैसे ग्रहण कर सकता हूं?आप तो यह जानती ही हैं कि मेरा अस्तित्व सनातन और जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्त है।आप कोई अन्य वर मांगिए। अदिति ने किसी अन्य वर की इच्छा नहीं की; फलतः भक्त की प्रीति और रुचि का रक्षण करने वाले प्रभु ने उनसे कहा- त्रेता युग के आने पर जब आप दोनों दशरथ और कौशल्या के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होंगे तब मैं अपने अंशावतारों सहित आपके पुत्र के रूप में  जन्म ग्रहण करूंगा। अंततः वह मधु क्षण आया जब श्री हरि ने नृपति दशरथ और पूर्व दिशा सदृश पवित्र कौशल्या के अंक से उदित होते बाल सूर्य रूपी राम  के रूप में अयोध्या में अवतार लिया।

वह बसंत ऋतु की पवित्र नवमी तिथि थी,भगवान् कौशल्या के प्रसूति गृह में प्रकट हुए…और माता से अपने अवतारी लीला वपु को संसार सुलभ बनाते हुए तथा भक्ति और भक्त का  मान रखते हुए अपने संसारी राम रूप को प्रकट करने की  अनुमति मांगी।माता उनके चतुर्भुज रूप को देखकर करबद्ध हो उनसे बालरूप में आने की प्रार्थना करने लगीं।माता के स्नेह का ध्यान और मान रखते हुए श्री हरि ने बाल रूप में आकर रुदन आरंभ किया…

राम ही वास्तविक आराम हैं उनके जन्म की सूचना पाकर दशरथ को ब्रह्मानंद की प्राप्ति होने जैसा सुख  अनुभव हो रहा है… माता पिता की इच्छा के अनुरूप संसार पालक परमात्मा ने स्वयं का पालन कराना  तथा दशरथ अजिर बिहारी होना स्वीकार किया।

राम का लीलामय जीवन भक्तों के शील के रक्षण के ऐसे  अनेक कथा प्रसंगों का अनंत विस्तृत महोदधि है।राम बड़े हुए, अयोध्या से ऋषिवर वशिष्ठ केआश्रम में जाकर शिक्षा ग्रहण करते हुए उन्होंने ब्रह्मचर्य और गुरुकुल की परंपराओं का पालन कर यह सिद्ध किया कि परमात्मा भी गुरु की इच्छा का अनुवर्ती होता है।राम विद्याध्ययन कर घर लौटे तो काल के निरंतर गतिमान प्रवाह में एक क्षण वह भी आया जब असुरों के आतंक से आतंकित और विक्षुब्ध तपस्वी विश्वामित्र को अपना तपोवन बचाने की आशा के रूप में दृष्टिगोचर हुए नारायणावतार राम।अपने प्रति मुनिवर की सहज प्रीति का अनुमान कर प्रभु ने छोटे भाई संग उनका अनुगामी बनना स्वीकार किया।भक्तों की प्रीति और रुचि के पराधीन रहने वाले प्रभु जब विश्वामित्र के तपोवन को आसुरी छाया से मुक्त कर अपने शाश्वत प्रेम की सिद्धि के रूप में वैदेही के वरण हेतु मिथिला की यात्रा के मार्ग में चले तब उन्होंने स्वयं युगलमूर्ति होने से पूर्व पतिवियुक्ताअहल्या को पाप-शाप से मुक्ति दे पतिलोक की प्राप्ति कराई।मिथिला पहुँचे राम को अपने अस्तित्व की यह शपथ कैसे विस्मृत हो सकती थी कि उनका पुण्य लीलावतार ही भक्तों की प्रीतिऔर रुचि के पोषण के हित हुआ है।माध्यम बनी अनुज लक्ष्मण की नगर-दर्शन लालसा और प्रभु-दर्शन-पीयूष का पान कर कृतार्थ हुई संपूर्ण मिथिला नगरी।वैदेही से प्रथम मिलन का साक्षी बना विदेह की राजवाटिका का पुष्पोद्यान और प्रेम की अमरता का माध्यम बना पिनाक,उस प्रसिद्ध शिवधनुष के भंग होते ही राम पूर्णकाम हो गए अपनी जीवन-निधि सीता को पाकर।

यहाँ से राम के इस अवतारी जीवन वृत्त का दूसरा परिच्छेद आरम्भ होता है।राम अयोध्या के युवराज बन रहे थे कि अचानक माता कैकेयी के मन में अपने पुत्र को राजा बनाने की इच्छा जगी,राम ने लक्ष्य किया कि अब उन्हें पुनः प्रीतिपालक होना होगा। माता द्वारा बाल्यकाल में अपने ऊपर न्योछावर किए गए वात्सल्य का मूल्य चुकाते हुए सीता और लक्ष्मण सहित राम ने वनवासी होना स्वीकार किया।भाई के लिए निज सुख के परित्याग का ऐसा उदाहरण विश्व के सामाजिक-सांस्कृतिक और साभ्यतिक इतिहास में कोई दूसरा नहीं है जब बड़ा भाई छोटे भाई के लिए सर्वस्व त्याग करे और छोटे भाई बड़े भाई के सम्मान के रक्षण हेतु राज्य तथा सांसारिकता का परित्याग कर विरागी और सन्यासी बन जाएँ।राम की प्रीतिपोषकता के आदर्श का अनुगमन कर भरतऔर लक्ष्मण भी अतुलित यशक्रेता हुए।केवट और निषाद जैसे सामजिक दृष्टि से नीचकुलोत्पन्नों को अपना प्रेम-भाजन बना अयोध्या के इस परमकुलीन इक्ष्वाकुवंशी राजकुमार ने यह सिद्ध कर दिया कि यह सृष्टि प्रेम और मानवता के उपकरणों से ही संचालित हो सकती है अन्य किसी भी ढंग से नहीं।प्रेम-भक्ति तथा समर्पण के इस सर्वोत्तम मानवी आदर्श की चरम परिणति के रूप में दिखाई पड़ी चित्रकूट-सभा। एक भाई दूसरे को मनाने गया उसका अधिकार देने के लिए और दूसरा भाई नहीं मान रहा था क्योंकि अधिकार विमुख होने से प्रीति पोषित हो रही थी,बड़े होने का कर्त्तव्य-संवहन हो रहा था।

ऐसे ही हैं राम…भरतपादुका-पुजारी हो गए सम्मान में,लक्ष्मण वनचारी हो गए प्रेम में और सीता वनचारिणी हुईं धर्म के निर्वाह में, परंतु राम…राम वनवासी हुए धरती पर प्रेम और मानवता की स्थापना के लिए।राम जिस संस्कृति के ध्वजवाहक बनकर वन-विचरण हेतु प्रस्तुत हुए थे उसका आदर्श वसुधैव कुटुम्बकम था,इस दैवीय संस्कृति के सम्मुख स्वयं की प्राण-रक्षा का प्रश्न सबसे विकट था।राम ने इस ऋषि-संस्कृति को प्रेम के सुधा-जल से सींचकर पुनर्जीवित किया। वंचितों से मिलकर शक्ति संचित करने का कार्य उन्हें भारत का सभ्यता-पुरुष बनाता है।मानों वन उन्हीं की प्रतीक्षा में था,अरण्य के वातावरण  में रहने वाले अनेक तपस्वी राम को मिले…वनवासियों के संरक्षण की वीर-प्रतिज्ञा उनके प्रति राम के  प्रबल-प्रेम का साक्ष्य बनी।अजन्मा से देहीऔर राजपुत्र से ऋषिपुत्र बन रघुवीर ने संसार को प्रेम और वचनपराधीनता का दुर्लभ आदर्श सिखाया।

एक संकल्प-सिद्ध मनुष्यता के रक्षक के रूप में राम ने दंडकारण्य से अनाचारियों और आसुरी शक्तियों का विनाश कर आर्यवर्त के इस भूभाग को आर्यसभ्यता के विकास हेतु बाधामुक्त बनाया।राम का वास्तविक महत्त्व या यों कहें कि राम का रामत्व इस बात में कम है कि वे राजपुत्र थे,अयोध्या के रघुवंशी थे ,अपितु राम की श्रेष्ठता,उनका अपूर्व गौरव और अतुलित यश वंचितों और शोषितों के रक्षण तथा उनके वास्तविक अधिकार एवं सम्मान की पुनर्प्रतिष्ठा करने में है।

राम के इस प्रतिज्ञा पूर्ण जीवन की शुरुआत होती है पंचवटी के सीता-हरण प्रसंग से…दंडकारण्य के उस क्षेत्र में असुरों का अनधिकृत प्रवेश बढ़ गया था;निःशंक होकर वन्य-प्रदेश में विचरण करते असुरों ने वन की शांति भंग कर दी थी।एक दिन आसुरी उत्पात की वही निषिद्ध छाया राम के आश्रम पर आ पड़ी। वन-विहार करती असुरराज रावण की बहन शूर्पणखा राम-लक्ष्मण के रूप-लावण्य पर मोहित हो उनसे अनुचित विवाह प्रस्ताव  कर बैठी,राम ने समझाया,सीता के विषय में बताया,वह न मानी,लक्ष्मण की ओर बढ़ी,उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। जब लक्ष्मण की अस्वीकृतिमिली  तो दानवी क्रोध में भर कर सीता को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से उनपर झपटी।लक्ष्मण ने उसे नाक-कान विहीन बनाकर उसकी धृष्टता का दंड दे दिया।अपमान से तिलमिलाई शूर्पणखा ने अपने धर्म-भ्राताओं खर तथा दूषण से अपनी बात कही और उन्हें राम पर  आक्रमण करने हेतु उत्तेजित किया।जब राम के हाथों उनका भी अंत हो गया तब शूर्पणखा ने राक्षसराज रावण को अपनी व्यथा-कथा सुनाई।रावण संपूर्ण असुरजाति का एकमात्र  सर्वश्रेष्ठ नायक था यद्यपि वह ब्रह्मकुलोत्पन्न नीति-मर्मज्ञ, वेदज्ञ, विद्वानऔर अमित पराक्रम-संपन्न, प्रजापालक चक्रवर्ती सम्राट था परंतु आसुरी वृत्तियों के चिंतन,रक्षण, पोषण तथा आसुरी कर्म-व्यवहार ने उसके विवेक को शून्य बना उसे अधर्म-पथगामी और अनीति-पोषक बना दिया था।एक अनार्य संस्कृति के ध्वजवाहक के रूप में अपनी शक्ति-विस्तार के क्रम में वह आर्य और अनार्य संस्कृतियों के मध्य होने वाले संघर्षो एवं युद्धों का केंद्र-बिंदु बन गया था।उससे आश्रय और प्रश्रय प्राप्त कर रक्ष  संस्कृति के अनुयायी आर्य तपस्वियों के यज्ञादि अनुष्ठानों को बाधित कर इस संस्कृति को आघात पहुँचा रहे थे सुर संस्कृति संकटापन्न हो रही थीऔर असुर संस्कृति नित्यप्रति संवर्द्धित।

रावण ने राजसभा में अपने अपमान के प्रतिशोध हेतु विलाप करती शूर्पणखा को देखा,शूर्पणखा ने अपने हित-साधन हेतु अपने अपमान को रावण के आत्माभिमान का हनन सिद्ध कर उसे परस्त्री-हरण जैसे नीच कर्म की ओर उन्मुख कर दिया।उसने मारीच नामक मायावी असुर को माया मृग बन सीता को मोहित करने का उपक्रम करने को कहा,मारीच माया मृग बना,उस पर सीता लुब्ध हुईं यद्यपि सोने के हिरण का जन्म तो असंभव ही है,तथापि राम सदृश मतिधीर भी इस माया-मृग की छलना में पड़ उसके पीछे चल पड़ा,उसी माया मृग की माया-जन्य करुण पुकार को सुन राम को विपत्ति में घिरा जान सीता ने राम के आदेश से अपनी सुरक्षा में सन्नद्ध लक्ष्मण को राम के सहायतार्थ राम के गमन की अनुमानित दिशा में जाने और उनकी सहायता करने को विवश किया।लक्ष्मण ने सीता के सुरक्षार्थ एक मंत्राभिमंत्रित रेखा खींची और सीता से किसी भी परिस्थिति में रेखा का उल्लंघन न करने का वचन ले भाई की सहायता हेतु उद्यत हुए।अवसर पा सूनी कुटिया से रावण जैसे वीर वेदज्ञ और दिग्विजयी ने मतिशून्य होकर पृथ्वी-तनया सीता का हरण कर लिया।रावण द्वारा अपहृत सीता दंडकवन से अशोक वन में आकर सशोक हो गईं।

मारीच रूपी माया मृग का संहार कर आश्रम लौट रहे राम का मन सीता की सुरक्षा को ले शंकाकुल हो गया।दोनों भाई शीघ्रता से आश्रम लौटे।आश्रम को जानकी-विहीन देख जानकीजीवन रघुनंदन की आँखें अश्रुपूरित हो गईं। सबकी चिंताओं का अपनी कृपादृष्टि मात्र से विमोचन कर देने वाले सीतापति अनुज सहित सीता के शोक में विलाप करते हुए सीता के अन्वेषण में तत्पर पथिक बन गए। खग-मृग ,भ्रमरों के समूहों और वन के पशु-पक्षियों,लता-पत्रों इत्यादि से अपनी प्रिया का पता पूछते राम जटायु से मिले,जो रावण द्वारा अपहृत,आकाश मार्ग से जातीं सीता के करुण विलाप को सुनकर उनकी सहायता करते हुए रावण के खड्ग प्रहारों से घायल और विकल हो भूमि पर गिर पड़े थे तथा मृत्यु से पूर्व राम को सीता के जीवन में आई रावण नामक विपदा के विषय में सूचित करना चाहते थे।सीता के रावण द्वारा अपहृत किए जाने की सूचना देते-देते उनके प्राण कंठगत होने लगे। राम ने उन्हें अपने पिता का मित्र और पिता-तुल्य कहकर उनके सम्मुख रावण को उसके कृत्य का समुचित दंड देने और सीता को ससम्मान मुक्त कराने  की प्रतिज्ञा की।जटायु ने प्राणोत्सर्ग किया राम के लिए और राम ने उनकी अंत्येष्टि और तर्पण किया स्वयं को उनके पुत्र-तुल्य समझकर।सीता-अन्वेषण के पथ मेंआगे बढ़ते राम शबरी से मिले,शबरी वनवासी भीलनी थी,अयोध्या के इस राजकुमार ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया।प्रीतिपरायण प्रभु ने उसके जूठे बेर खाए और उसे माता कहकर पुकारा,ऋषि शरभंग और दूसरे वनवासी तपस्वियों से मिलकर राम वन्य-प्रदेश के निवासियों की जीवन-विपदा से परिचित हुए…

राम की प्रीति-पराधीनता का चरमोत्कर्ष उनकी वानर-भालुओं से मैत्री में प्रकट होता है।सीता की खोज करते हुए राम  किष्किन्धा के वानरराज बालि द्वारा शासित वन्य-पर्वतीय क्षेत्र की दिशा में अग्रसर हुए….मार्ग में उनकी भेंट वानरश्रेष्ठ अंजनीसुत हनुमान से हुई।हनुमान को अपने आराध्य के दर्शन से कृतार्थ होने का सुअवसर मिला और राम को अपने अनन्य भक्त तथा प्रीतिपात्र पर अपनी अहैतुक कृपा बरसाने का सुयोग प्राप्त हुआ। हनुमान की सम्मति से प्रभु ने किष्किंधा से निर्वासित और बालि द्वारा अपमानित सुग्रीव से मैत्री संबंध स्थापित कर उसकी सुरक्षा का वचन दिया सुग्रीव ने राम को वे आभूषण दिखाए, जिन्हें अपहृत हो आकाश मार्ग से जाती सीता ने उस पर्वत के शिखर पर गिराए थे जहां सुग्रीव अपने विश्वासी सचिवों के साथ निवास करता था…सुग्रीव  के द्वारा दिखाए गए उन आभूषणों ने राम के ह्रदय में सीता की स्मृति को इस प्रकार पुनर्जीवित करा दिया जैसे कोई मृत्यु के अंक में जाते जीव को पुनः जीवन की ओर मोड़ दे।उन्हें महात्मा जटायु द्वारा सीता के विषय में दी गई सूचना पर दृढ़ विश्वास हो गया कि सीता का हरण राक्षसराज रावण ने ही किया है।अब राम की मित्रपरायणता संसार के सम्मुख दृष्टिगत हुई, उन्होंने वानरराज बालि का वध कर सुग्रीव को उसकी पत्नी तथा राज्य दिलवाए।सुग्रीव राजा बने और बालि-पुत्र अंगद युवराज।सुग्रीव ने अपना मित्र-धर्म निभाते हुए सीता की खोज के लिए विभिन्न वानर-समूहों को चारों दिशाओं में भेजा। युवराज अंगद के नेतृत्व में दक्षिण  दिशा की ओर जाने वाले अन्वेषण-दल में हनुमान और रीक्षराज जामवंत इत्यादि सम्मिलित थे।यह दल दक्षिण दिशा में सीता की खोज के लिए जाने वाला था।राम ने  हनुमान को अपना प्रीतिभाजन जानकर उन्हें अपनी मुद्रिका दी और सीता के लिए अपना विरह-संदेश प्रेषित किया।हनुमान,जामवंत अंगदादि अपने मार्ग की अनेक विकट बाधाओं को पार कर भारत के दक्षिणवर्ती समुद्र-तट तक पहुँचे,वहाँ दुर्लंघ्य समुद्र को लाँघ हनुमान ने रावण के अजेय लंका नगर में प्रवेश किया।लंका की अभेद्य सुरक्षा में सेंध लगा बुद्धिमान हनुमान ने सर्वत्र सीता की खोज की पर वैदेही का पता नहीं मिला।हनुमान  निराश ही हो रहे थे कि उन्हें आशा की किरण के रूप में विभीषण मिले।

विभीषण ने हनुमान से अपनी विपत्ति और लंका में अपने रहने की विवशता कह सुनाई,हनुमान ने उन्हें प्रभु श्रीराम की भक्तवत्सलता और प्रीतिपरायणता के विषय में  बताते हुए उनसे धैर्य धारण करने को कहा। विभीषण को आश्वस्त कर हनुमान उनके द्वारा सुझाए गए अशोक उपवन के उस निर्दिष्ट मार्ग की ओर बढ़े, जहाँ रावण ने सीता को बंदी बनाकर रखा था।

सीता की खोज पूरी हुई,हनुमान ने रघुवीर-भार्या के प्रथम दर्शन किए।सीता को देख हनुमान को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे किसी ऐसे सरोवर के सदृश हों जो जल और कमल विहीन होकर सुषमा-हत हो गया हो। प्रिय-विरह के कारण नेत्रों से निरंतर बहती अश्रु-धारा से अश्रुमुखी हुईं सीता का दर्शन-लाभ प्राप्त कर हनुमान स्वयं को बड़भागी ही अनुभव कर रहे थे कि तभी उन्हें अशोक-वाटिका में रावण के आने का आभास हुआ। वे उसी वृक्ष की शाखाओं के मध्य छिप गए जिसके नीचे विरहिणी सीता बैठी हुई थीं। रावण और सीता के मध्य हुए वार्तालाप से हनुमान ने यह निश्चय कर लिया कि वैदेही का चित्त सदा-सर्वदा श्रीराम के चरणों में ही अनुरक्त है। रावण ने सीता के सम्मुख प्रणय-प्रस्ताव रखा,सीता ने उसे अस्वीकार करते हुए रावण को रघुवीर के वाणों से डरने तथा उसके समूल नाश की भयानक चेतावनी दी। सीता के अपमानजनक व्यवहार से क्रुद्ध रावण ने उपवन की रक्षा में नियुक्त निशाचरियों को सीता को भय और त्रास देने का आदेश दिया।

रावण के प्रस्थानोपरांत,जब विरहविदग्धा वैदेही अशोक-वृक्ष से अग्नि-दान माँग स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देने को उद्यत दिखीं तब सीता के सम्मुख प्रस्तुत होने और उनके मृत्योत्कंठित प्राणों के रक्षण का उचित अवसर जान हनुमान ने राम द्वारा उन्हें संदेश-स्वरूप दी हुई मुद्रिका नीचे गिरा दी। अपने सम्मुख रामनामांकित मुद्रिका को देख सीता को अत्यंत आश्चर्य हुआ। वे मन में विचार करने लगीं कि निशाचरी माया से तो यह मुद्रिका बनाई नहीं जा सकती;फिर ऐसा कौन है, जिसने इस राम-मुद्रिका को उन तक पहुंचाया है? सीता अभी विचार-विकल ही थीं कि हनुमान ने रघुवीर के पुण्य-चरित्र का सघोष वर्णन आरंभ किया,निशाचरियों को रात्रि-विश्राम के लिए गया देख सीता के निवेदन पर हनुमान वृक्ष से नीचे आ उनके सम्मुख प्रस्तुत हुए। उनके विशाल वानराकार को देख भय से सीता ने उनसे मुख मोड़ लिया,हनुमान ने राम से जुड़ी कुछ गोपनीय बातें बताईं;स्वयं को उनका दूत और सेवक बताया तब सीता कुछ आश्वस्त हुईं।राम का स्मरण कर वैदेही व्याकुल हो उठीं,उन्होंने राम-लक्ष्मण की कुशल-क्षेम पूछी। सीता यह जानने को उत्कंठित थीं कि राम उनसे वियुक्त होकर उन्हें कैसे याद करते हैं? हनुमान ने रघुवीर-प्रिया को रघुवीर का संदेश सुनाते हुए कहा- हे माता! तुम्हारी प्रीति के वश विकल रघुवीर की विरह-वेदना का वर्णन मैं किन शब्दों में करूँ?तुम इतना जानो कि तुम्हारे विरह से व्याकुल रघुवीर के नेत्रों में सदैव अश्रु-उदधि लहराता रहता है,तुम्हारी प्रतीक्षा में अपने तन को गलाते रघुवीर ने कहा है कि तुम्हारे और उनके हृदय की परस्परिक प्रीति को समझने वाला उनका एकमात्र चित्त सदैव तुम्हारे ही पास रहता है। तुम प्रभु के इन वचनों को ही अपने प्रति उनकी अविचल प्रीति-प्रतिज्ञा समझो। यदि उन्हें यह ज्ञात हो गया होता कि तुम्हें रावण ने अपहृत किया है तो अभी तक कदाचित लंका अपने अंत की राह देख रही होती।

हनुमान ने सीता के मन को संशय-मुक्त किया,राक्षसों को कीट-पतंगों तथा राम के बाणों को उन्हें जलाने वाली प्रचंड अग्नि के सदृश बताते हुए  हनुमान ने विरह-समुद्र में डूबते वैदेही के प्राणों को जलयान बनकर उबार लिया। हनुमान के बुद्धि-बल से विश्वस्त हुईं जानकी ने उन्हें अजरता,अमरता और अपूर्व गुणशीलता के धारक होने का पुण्य आशीष दिया। सीता की सम्मति और आशीष प्राप्त कर सुमति हनुमान अपनी क्षुधा शांत करने अशोक उपवन के फल-फूल धारी वृक्षों की ओर बढ़े। अपने वानर स्वभाव के अनुरूप उन्होंने सम्पूर्ण वाटिका का विध्वंस कर उसे अशोक से सशोक बना दिया।

उपवन-प्रहरियों की चीख-पुकार पर उपवन के रक्षार्थ आए अक्ष कुमार का वध कर हनुमान ने अपने पराक्रम का परिचय भी दे दिया। पुत्र-वध से व्याकुल दशानन ने अपने इंद्र-विजयी पुत्र मेघनाद को हनुमान को बंदी बनाकर राजसभा में उपस्थित करने का आदेश दिया। अतुलित बल वाले वीर को सम्मुख पा अतुलित बल के धाम पवन-तनय ने बंधन में बंधजाना स्वीकार किया,वास्तव में हनुमान रावण की प्रभुता और सामर्थ्य का अनुमान कर उसे अधर्म से बचाने और राघव के उदार चरित्र का परिचय देने के अपने दौत्य-कर्म का निर्वाह करना चाहते थे।

दशशीश की उस वैभवशालिनी सभा में हनुमान ने अपना परिचय देते हुए रावण को धर्म के पथ पर चलने की सम्मति दी। जिसके नाश को स्वयं नारायण ने पग बढ़ा दिए हों,सुबुद्धि रूपी सरस्वती पहले ही उसका साथ छोड़ देती है। रावण ने सीता को आदरपूर्वक राम को लौटाने का हनुमान का प्रस्ताव तो अस्वीकार किया ही उसने वायु-पुत्र आंजनेय को भी दंडित करने की बात कही। दंड स्वरूप हनुमान की पूँछ को जलाने का आदेश देते हुए रावण प्रसन्न हो रहा था कि उसने वानर की पूँछ जला दी परंतु देखते-ही-देखते उसकी स्वर्णमयी लंका का स्वर्ण हनुमान की अग्नि-लीला के ताप से पिघल कर समुद्र की लहरों में विसर्जित होने लगा। हनुमान ने लंका का दुर्भाग्योदय कर दिया। सारे नगर को अग्नि-समर्पित कर मारुत-सुत महावीर ने समुद्र में छलांग लगा पूँछ की आग बुझाई और विदा के समय अनुमति के हित जनकनंदिनी के समक्ष उपस्थित हुए। सीता को शीघ्र ही राम के लंका पहुँचने और रावण का नाश कर उन्हें ससम्मान मुक्त कराने की आश्वस्ति दे हर्षित-चित्त हनुमान सीता-राम के प्रेम को हृदयस्थ कर सागर पार आ गए।किष्किंधा पहुँचकर उन्होंने सीता की स्थिति से अवगत कराते हुए श्रीराम को उनका विरह संपृक्त प्रीति-संदेश सुनाया।